व्यूहरचनात्मक प्रबंधन / Strategic Management

व्यूहरचनात्मक निर्णयन का अर्थ | व्यूहरचनात्मक निर्णयन प्रक्रिया के विचारणीय विषय

व्यूहरचनात्मक निर्णयन का अर्थ | व्यूहरचनात्मक निर्णयन प्रक्रिया के विचारणीय विषय | Meaning of strategic decision making in Hindi | Issues to consider in the strategic decision making process in Hindi

व्यूहरचनात्मक निर्णयन का अर्थ

(Meaning of Strategic decision making)

निर्णयन (Decision Making) किसी भी प्रवन्ध का एक सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है। इसी प्रकार कूटनीतिक निर्णयन भी उच्च प्रबन्ध का एक अति आवश्यक कार्य है। उपर्युक्त दोनों ही प्रकार के निर्णय किसी भी प्रबन्धतंत्र के लिये समान उपयोगिता रखते हैं। दोनों में अंतर केवल इतना है कि दोना अलग-अलग स्तरों से संचालित किये जाते हैं। निर्णयन यहाँ समस्त सामान्य प्रबन्धकीय कार्यों में संग्रहीत है। वही कूटनीति निर्णयन प्रबन्ध तंत्र से सम्बन्धित है। कूटनीतिक निणर्यन की प्रमुख रूप से निम्नलिखित प्रक्रिया शामिल है-

(1) जिन उद्देश्यों को प्राप्त करना है उनका निर्धारण करना।

(2) उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये विभिन्न विकल्पों की खोज करना।

(3) प्रत्येक विकल्प की क्षमता का पता लगाना एवं

(4) सर्वोत्तम विकल्प का चयन करना।

उपर्युक्त प्रक्रिया का अंतिम परिणाम निर्णयन कहलाता है। सामान्य तौर पर देखने में उपर्युक्त अत्यन्त सरल प्रतीत होती है, परन्तु वास्तविक प्रयोग में यह प्रक्रिया प्रबन्ध तंत्र की सबसे जटिल प्रक्रिया होती है। निर्णयन प्रक्रिया में सबसे पहले उद्देश्यों के निर्धारण की समस्या होती है। द्वितीय उद्देश्य पूर्ति हेतु विभिन्न विकल्पों की खोज भी अत्यन्त कठिन कार्य होता है। साथ ही साथ विभिन्न विकल्पों का पता लगा भी लिया जाय तो उनकी क्षमता का आकलन करना अत्यन्त आवश्यक कार्य होता है क्योंकि विकल्पों की क्षमता नापने के लिये प्रबन्ध के पास कोई पैमाना नहीं होता है। प्रबन्ध तंत्र अपने अनुभवों के आधार पर इन विकल्पों की क्षमता का ज्ञान करने का प्रयास करता है।

अंत में सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करना भी प्रबन्ध के लिए काफी कठिन होता है क्योंकि कभी-कभी अनुमान सही परिणाम नहीं देते हैं।

यह एक सामान्य बात है कि प्रबन्धकों को अपने रोजमर्रा के कार्यों में निर्णयन से समबन्धित विभिन्न समस्याओं का सामना करना होता है। इसके साथ-साथ यदि उन्हें कूटनीतिक निर्णय भी लेने हों तो यह और कठिन कार्य हो जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि कूटनीतिक निर्णयन की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और कठिन होती है। कूटनीतिक प्रबन्ध की प्रक्रिया में कूटनीतिक निर्णयन का मुख्य उद्देश्य कार्यप्रणाली के चयन से सम्बन्धित होता है। अतः कूटनीतिक निर्णयन उद्देश्यों के चुनाव पर आधारित होता है।

कूटनीतिक या रणनीतिक निर्णयन के विचारणीय विषय

(Subject matter of Strategic decision making)

कूटनीतिक निर्णय एक जटिल प्रक्रिया है अतः इसका सम्पादन आसान नहीं होता है। कोई भी कूटनीतिक उसके लिये विशिष्ट प्रकार की विधि का ज्ञान नहीं रखता है। यह मनुष्य के मस्तिष्क की जटिल प्रक्रिया की तरह है और मनुष्य समय की माँग और अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रक्रिया को अपनाता है। कूटनीतिक निर्णयन करते समय निम्नलिखित मुख्य बातों पर विचार करना आवश्यक है-

  1. निर्णयन का सिद्धान्त- उद्देश्यों का निर्धारण निणर्यन का प्रमुखा तत्व है। ये उद्देश्य निर्णयन प्रक्रिया में मील के पत्थर का कार्य करते हैं। निर्णयन की कार्यक्षमता का निर्धारण भी इन्हीं उद्देश्यों के आधार पर ही किया जाता है।

अतः यह उद्देश्य ही निर्णयन के सिद्धान्तों को जन्म देते हैं, निर्णयन में सिद्धान्तों की स्थापना के लिये निम्न तीन बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये-

(अ) अधिकतम का विचार यह विचारधारा उन अर्थशास्त्रियों के विचारों पर आधारित है। जिसके विचार में निर्णयन सदैव सर्वोत्तम एवं अधिकतम उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये होना चाहिये। संगठन की कार्यप्रणाली अधिकतम उत्पाद प्राप्त करने तथा शतप्रतिशत उद्देश्य पूर्ति हेतु होनी चाहिये। अधिकतम उद्देश्य पूर्ण से ही उचित लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है। अतः संस्था में निर्णयन के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो भी कार्यप्रणाली निर्धारित की जाये उससे अधिकतम उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।

(ब) संतुष्टि का सिद्धान्त- उद्देश्यों का निर्धारण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि उन उद्देश्यों से संस्था को सम्पूर्ण संतुष्टि प्राप्त हो अर्थात् इन उद्देश्यों की प्राप्ति सामान्य तौर पर की जा सके।

(स) उत्तरोत्तर वृद्धि का विचार- इन विचारधारा के समर्थकों का मानना है कि किसी धर्म या संगठन की कार्यप्रणाली अत्यधिक जटिल होती है और निर्णयन, जिसमें कि उद्देश्य निर्धारण भी शामिल है एक सदैव चलने वाली प्रक्रिया है। अतः उद्देश्य निर्धारण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि उद्देश्यों की प्राप्ति का सबसे बेहतर प्रयास हो और अधिक सन्तुष्टि की प्राप्ति हो सके।

  1. तर्कपूर्ण विचारधारा- इस विचारधारा के अनुयायियों का मत है कि निर्णय लेने वाला व्यक्ति अति महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। इस व्यक्ति का व्यवहार तर्कपूर्ण एवं विवेकपूर्ण होता है। निर्णय चूँकि एक चयनित प्रक्रिया है जिसका निर्माण पूर्ण सावधानी तथा समस्त विकल्पों को ध्यान में रखकर किया जाता है। निर्णयकर्त्ता सभी विकल्पों के प्रति सचेत रहता है तथा सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करता है। इससे उसके उद्देश्य की अधिकतम पूर्ति होती है।
  2. नवीनता- निर्णय लेने वाले व्यक्ति में कुछ नया करने की इच्छा होनी चाहिये यही इच्छा उसके मस्तिष्क में नये-नये विचारों को जन्म देती है। जिससे उद्देश्यों की प्राप्ति और आसान हो जाती है।
  3. विरोधाभास– अक्सर यह देखा जाता है कि दो निर्णयकर्त्ता के निर्णय परस्पर विरोधी होते हैं अर्थात् दोनों के द्वारा किये गये निर्णयों से परिणाम बिल्कुल विपरीत प्राप्त हो सकते हैं। ऐसा इसलिये होता है कि विभिन्न विषयों पर उनकी सोच और उनका समाधान करने का तरीका परस्पर विरोधी होता है। अतः निर्णयन के लिये कोई ऐसा सटीक फार्मूला नहीं है जो कि प्रत्येक स्थिति में एक सा परिणाम दे। अतः यह ध्यान रखना चाहिये कि कूटनीतिक, निर्णयन में भी प्रत्येक स्थिति में एक सा परिणाम मिलना सम्भव नहीं है।
  4. व्यक्तिगत विचारधारा- ऐसा सदैव देखा जाता है कि निर्णयन निर्णय करने वाले की व्यक्तिगत रुचि तथा व्यवहारों के अनुरूप ही होता है। उसकी व्यक्तिगत विचारधारा अन्य लोगों से भिन्न हो सकती है तथा उसकी व्यक्तिगत रुचि भी अन्य लोगों से भिन्न हो सकती है। अतः यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि व्यक्तिगत रुचि एवं व्यवहारों के परे निर्णयकर्ता को अधिकतम संतुष्टि के लिये कार्य करना चाहिये।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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