‘लागत’ का अर्थ क्या है? | लागत के प्रकार | शिक्षा के लागत लाभ के वर्गीकरण
‘लागत’ का अर्थ क्या है? | लागत के प्रकार | शिक्षा के लागत लाभ के वर्गीकरण
लागत के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं-
- वैकल्पिक लागत (Optional Cost)
- पूँजीगत तथा आवर्ती लागत (Capital and recurrent Costs)
- औसत तथा सीमान्त लागत (Average and Marginal Costs)
वैकल्पिक लागत (Optional Cost)-
शिक्षा की वैकल्पिक लागत में वे सभी यथार्थ संसाधन सम्मिलित होते हैं जिनका उपयोग शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया में किया जाता है। जहाँ इन संसाधनों को धन के रूप में नहीं मापा जा सकता वहाँ उनके वैकल्पिक उपयोग में मिलने वाले मूल्य के रूप उनकी अनुमानित लागत सम्मिलित की जा सकती है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण है छात्रों का समय की वैकल्पिक लागत निकालने के लिए हमें यह मालूम करना होगा कि यदि यही समय वे किसी वैतानिक कार्य करने में लगाते तो उन्हें क्या आर्थिक लाभ होता। कुछ विद्वान ‘वैकल्पिक लागत’ के अन्तर्गत सभी संसाधनों के मूल्य व्यक्त करने के लिए करते हैं जो खरीदे या बेचे नहीं जाते हैं, बल्कि उनका पूल्य त्यागी गई आय या अन्य माप द्वारा आका जाता है। वस्तुतः कैकल्पिक लागत के अन्तर्गत सभी संसाधनों का समावेश होता है चाहे वे बेचे और खरीदे गये हों अथवा नहीं। केतन रहित मानव का सक्रिय योगदान इसी श्रेणी में आता है।
सामान्यतः शिक्षा की वैकल्पिक लागत को व्यक्तिगत तथा सम्पूर्ण समाज के सन्दर्भ में मापा जा सकता है। व्यक्ति छात्र या उनके परिवार की शिक्षा की लागत में शिक्षा-शुल्क, पुस्तकें, उपस्कर तथा त्यागी गई आय सम्मिलित होती है। समाज के सन्दर्भ में लागत बहुत व्यपक होती है। इसके अन्तर्गत न केवल शिक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों का वेतन, पुस्तकों, उपस्कर, कच्चा माल तथा भवन हैी आते हैं। अपितु छात्रों की वैकल्पिक लागंत भी सम्मिलित होती है। व्यक्ति के सन्दर्भ में लागत को निजी लागत कहते हैं तथा समाज के सन्दर्भ में आने वाली लागत को सामाजिक लागत कहते हैं।
शिक्षा अर्थशास्त्र के अन्तर्गत वैकल्पिक लागत, विशेषतः त्यागी गई मजदरी अथवा निःशुल्क प्राप्त भूमि, सामान आदि को मापने की कठिनाई को देखते हुए प्रायः शिक्षा लागत विश्लेषण में वैकल्पिक लागत की अपेक्षा मूल्य लागत के विश्लेषण पर आर्थिक ध्यान दिया जाता है। शिक्षा पर वास्तव में खर्च हुए धन तथा शिक्षा कार्य में लगे हुए अन्य संसाधनों की वैकल्पिक लागत में अन्तर करना भी महत्वपूर्ण है। लागत लाभ विश्लेषण में आर्थिक व्यय की अपेक्षा वैकल्पिक लागत का उपयोग होता है।
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पूँजीगत तथा आवर्ती लागत (Capital and recurrent Costs)-
किसी भी लागत में चालू तथा पूंजीगत व्यय-दोनों ही सम्मिलित किए जाते हैं, इनमें महत्वपूर्ण अन्तर है। आवर्ती अथवा चालू व्यय में उपभोग्य वस्तुओं जैसे (पुस्तकें, स्टेश्नरी, ईंधन इत्यादि) पर तथा ऐसी सेवाओं पर व्यय सम्मिलित है जिनसे जल्दी ही लाभ मिलता है तथा उन्हें नियमित रूप से नवीन करना होता है। पूँजीगत व्यय के अन्तर्गत भवन, मशीनें आदि ऐसी स्थायी वस्तुओं की खरीद आती है जो लम्बी अवधि तक लाभ देती है। पूंजीगत माल की खरीद को निवेश कहा जा सकता है। शिक्षा अर्थशास्त्रियों के अनुसार चालू तथा पूंजीगत दोनों व्यय को यथार्थ अथवा चालू मूल्य या स्थिर मूल्य स्तर के रूप में मापा जा सकता है। उदाहरणार्थं शिक्षा व्यय की प्रवृत्ति क़ा विश्लेषण यथार्थ व्यय की प्रवृत्ति के रूप में अथवा स्थिर क्रय शक्ति के रूप में व्यक्त किया जा सकता है।
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औसत तथा सीमान्त लागत (Average and Marginal Costs) –
लागत विश्लेषण के अन्तर्गत शिक्षा की कुल लागत का अथवा प्रति इकाई लागत का अध्ययन किया जा सकता है। प्रति इकाई लागत के अन्तर्गत एक छात्र की शिक्षा पर लगी लागत को मापा जाता है। प्रति इकाई लागत को मापने की दो विधियाँ हैं यदि एक शिक्षण संस्था के कुल छात्रों की शिक्षा की लागत को उस संस्था के कुल छात्रों की संख्या से विभाजित किया जाये तो इससे प्रति छात्र का औसत लागत निकल आती है। विकल्प के रूप में यदि स्नातक शिक्षा पर लगी लागत को स्नातक-कक्षा के कुल छात्रों की संख्या से विभाजित कर दिया जाए तो इससे प्रति स्नातक औसत लागत ज्ञात हो, जाती है। ये दोनों ही प्रति इकाई लागत के उदाहरण हैं। समय के सन्दर्भ (जैसे औसत आय, प्रति छात्र, प्रति घंटे इत्यादि) में भी औसत लागत निकाली जा सकती है।
कभी-कभी नये छात्र के प्रवेश के कारण कुछ उद्देश्यों के लिए लागत में वृद्धि को मापना आवश्यक होता है। ऐसे एक छात्र के कारण जो लागत में अतिरिक्त वृद्धि होती है। उसे सीमान्त लागत या वर्धमान लागत कहते हैं। प्रति इकाई के बढ़ने के कारण जो अतिरिक्त व्यय होता है उसे माप कर यह लागत मालूम की जा सकती है। भिन्न संस्थाओं में औसत तथा सीमान्त लागत का परस्पर सम्बध होता है। यह सम्बन्ध लागत कार्य अर्थात् लागत उथा आकार के परस्पर सम्बन्ध पर निर्भर करता है। यह स्पष्ट है कि यदि किसी पाठशाला अथवा अन्य संस्था में छात्रों के प्रवेश की संख्या में वृद्धि होती है तो कुल लागत बढ़ेगी परन्तु छात्र संख्या में परिवर्तन होने पर औसत तथा सीमान्त लागत बढ़-घट या स्थिर रह सकती है। प्रवेश संख्या में वृद्धि होने के परिणामस्वरूप औसत तथा सीमान्त लागत तीन प्रकार से परिवर्तित हो सकते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में औसत तथा सीमान्त लागत के घटने-बढ़ने का कारण यह है कि विद्यालय, महाविद्यालय इत्यादि में कुछ लागत तो नियत होती है। जबकि अन्य आकार अथवा छात्र संख्या के अनुसार परिवर्तनीय होती है। छात्र की कुल संख्या में वृद्धि के कारण औसत तथा सीमान्त लागत में परिवर्तन कुछ कारकों पर निर्भर करते हैं। यथा-क्या अधिकांश लागत स्थिर है अथवा परिवर्तनीय, तथा क्या सारे संसाधनों का पूर्ण उपयोग कर लिया गया है या नहीं, अथवा क्या अतिरिक्त उपयोग की क्षमता है या नहीं। अतिरिक्त उपयोग की क्षमता से यह अभिप्राय है कि लागत में वृद्धि किए बिना छात्रों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है।
प्रायः लागतों का नियत तथा परिवर्तनीय होना समय की अवधि पर निर्भर करता है। अल्प अवधि में अध्यापकों तथा भवनों की लागत नियत हो सकती है यद्यपि पुस्तकें, स्टेशनरी तथा अन्य सामग्री की संख्या छात्र-संख्या के साथ साथ बढ़ सकती है। दीर्घ-अवधि में नियुक्त किए गए अध्यापकों की संख्या परिवर्तनशील हो सकती है। दीर्घ-अवधि की सीमान्त लागत की अपेक्षा शिक्षा की अल्प-अवधि में सीमान्त लागत निम्न रहने की सम्भावना रहती है। छात्र संख्या में अतिरिक्त वृद्धि के कारण अतिरिक्त लागत में वृद्धि होना भी इस बात पर निर्भर करेगा कि परिवर्तन किस परिणाम में करना है। एक अतिरिक्त छात्र के प्रवेश के कारण अतिरिक्त लागत को मापना असम्भव हो सकता है। परन्तु 50 से 100 अतिरिक्त छात्र के कारण लागत में अतिरिक्त लागत को मापना पूर्णतः सम्भव हो सकता है, विकल्प के रूप में 50 से 100 छात्रों की संख्या कम करने के कारण सीमान्त बचत को मापा जा सकता है। यहाँ पर यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि-
यनाइटेड किंगडम में विदेशी छात्रों की सीमान्त लागत के अध्ययन में बताया गया है कि- स्पष्टतः विदेशी छा्रों के विषय में सीमान्त लागत अथवा सीमान्त बचत जैसी कोई बात नहीं है। सीमान्त लागत तथा सीमान्त बचत पृथक संख्या नहीं है बल्कि क्रमागत कार्य है। 100 अतिरिक्त छात्रों की सीमान्त लागत शून्य हो सकती है। जब कि 200 अतिरिक्त छात्रों की सीमान्त लागत पर्याप्त अधिक हो सकती है। इसके अतिरिक्त 1000 अतिरिक्त छात्रों की सीमान्त लागत 500 छात्रों की सीमान्त लागत से दोगुनी नहीं होती है। सीमान्त बचत पर भी यह बात लागू होती है।
“कम विदेशी छात्रों की दीर्घ-अवधि की सीमान्त बचत अधिक विदेशी छात्रों की दीर्घ-अवधि की सीमान्त लागत के एकदम प्रतिलोम नहीं है। कम विदेशी छात्रों की सभी सम्भावित बचतों को मालूम करने में वर्षो लग सकते हैं।” – ब्लॉग
इस प्रकार नियत तथा परिवर्तनशील लागतों का परस्पर अनुपात सीमान्त तथा औसत लागतों के सम्बन्ध को निर्धारित करता है।
आकार तथा औसत लागत एवं सीमान्त लागतों में निम्नलिखित तीन सम्बन्ध है-
- समानुपातिक प्रतिफल का आयलर (Constant Returns to Scale)- इसके अंतर्गत औसत सीमांत लागते समान होती है तथा औसत पूर्ववत लागते रहती हैं, चाहे इकाइयों की संख्या में भले ही परिवर्तन हो जाए।
- परिणाममूलक सुलाभ (बड़े पैमाने की किफायतें) (Economies of scale)- इसके अनतर्गत इकाई संख्या में वृद्धि के परिणामस्वरूप औसत लागत गिर जाती है क्योकि लागत की अपेक्षा सीमांत लागत कम होती है।
- परिणामस्वरूप सुलाभ (Dis-economics of scale)- इसके अंतर्गत औसत लागत की अपेक्षा सीमांत लागत अधिक आती है अतः इकाइयों की संख्या में वृद्धि के साथ साथ औसत लागत भी बढ़ती है।
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