मध्यमकालीन कोषों के साधन का अनुमान

मध्यमकालीन कोषों के साधन का अनुमान | Estimation of sources of medium term Founds in Hindi

मध्यमकालीन कोषों के साधन का अनुमान | Estimation of sources of medium term Founds in Hindi

मध्यमकालीन कोषों के साधन का अनुमान

(Estimation of sources of medium term Founds)

मध्यमकालीन ऋणों के विश्लेषण का मुख्य आधार ऋण के लिए आवेदन करने वाली कम्पनी द्वारा अपने व्यवसाय के बारे में प्रस्तुत पूर्वानुमानों का ब्यौरा होता है ये पूर्वानुमान उत्पादन, विक्रय तथा लागतों की भावी प्रवृत्तियों के आधार पर लगाये जाते हैं। इनके आधार पर भविष्य में सम्भावित लाभ की मात्रा का अनुमान लगाया जाता है तथा इस बात की जाँच की जाती है कि यथेष्ट लाभ के कारण कम्पनी में होने वाले रोकड़-प्रवाह (Cash-Flow) का स्तर आने वाले वर्षों में मूल तथा ब्याज की निर्धारित किश्तों की नियमित अदायगी के लिए पर्याप्त रहेगा अथवा नहीं? इसके साथ ही अनेक अन्य बातों को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है। जैसे- ॠण का आकार एवं उनकी शर्तें, कम्पनी की वित्तीय स्थिति, प्रवन्धकों की कुशलता का स्तर उत्पादित वस्तु की प्रकृति एवं बाजार में उसकी भावी माँग की सम्भावनाएँ ऋण की सुरक्षा के लिए प्रस्तुत की जाने वाली स्थिर सम्पत्तियों का मूल्य आदि। इन समस्त तथ्यों के आधार पर ही ऋण देने वाली की सुरक्षा के लिए प्रस्तुत की जाने वाली स्थिर सम्पत्तियों का मूल्य आदि। ऐसा निर्णय लेने में जो तीन बातें प्रमुखतः सहायक होती हैं। वे हैं कम्पनी की वित्तीय सुदृढ़ता, प्रबन्ध की कुशलता तथा पर्याप्त लाभदायकता। स्पष्ट है कि अल्पकालीन ऋण की अपेक्षा मध्यमकालीन ऋण के विषय में निर्णय लेना अधिक कठिन होता है। क्योंकि इसके विश्लेषण की प्रक्रिया अधिक जटिल होती है तथा इसके अन्तर्गत अनेक औपचारिकताओं एवं जाँच पड़तालों को पूरा करना आवश्यक हो जाता है। नीचे मध्यमकालीन कोषों के साधनों के कतिपय प्रमुख बिन्दुओं का विस्तार से वर्णन किया गया है।

  1. प्रयोजन (Purpose) – निर्माणी कम्पनियों को मध्यमकालीन कोषों की आवश्यकता व्यवसाय के विकास एवं विस्तार के लिए होती है। इन कोषों का उपयोग ऐसी कम्पनियाँ संयन्त्रों अथवा उपकरणों की खरीद के लिए करती हैं। साथ ही पुराने संयन्त्रों के स्थान पर आधुनिकतम स्वचालित संयन्त्रों की स्थापना के लिए भी मध्यमकालीन कोषों की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, कार्यशील पूँजी के अपरिवर्तनीय भाग (Non-variable part of working capital) में वृद्धि करने के उद्देश्य से भी मध्यमकालीन कोष प्राप्त किये जाते हैं। ऐसा करना उस समय आवश्यक हो जाता है जब आय तथा मूल्यों में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ माँग में वृद्धि हो रही हो, जिससे कि चल सम्पत्तियों (Current Assets) के आकार को उत्पादन-स्तर के अनुरूप बढ़ाया जा सके। मध्यमकालीन कोषों के अन्य अनेक उपयोग भी हो सकते हैं, जैसे- पुराने ऋणपत्रों या बॉण्डों की अदायगी के लिए, बाजार सर्वेक्षण अथवा विक्रय या विज्ञापन अभियान के लिए अथवा अनुसन्धान या अन्वेषण की परियोजनाओं को पूरा करने के लिए।

(2) सुरक्षा (Security) – वित्तीय संस्थाएँ ऐसे ऋण के लिए आवेदक कम्पनियों द्वारा सुरक्षा या ‘जमानत’ दिये जाने की अपेक्षा करती हैं। ऐसी जमानत कम्पनी की विद्यमान स्थिर सम्पत्तियों पर प्रभार (Charge) उत्पन्न करके अथवा उन्हें या उनके किसी भाग को बन्धक रख कर दी जाती है। इसके साथ ही कभी-कभी कम्पनी के संचालकों अथवा प्रबन्ध संचालकों की व्यक्तिगत गारण्टी दिये जाने पर भी जोर दिया जाता है। नवीन परियोजनाओं के लिए निष्पादित किये जाने वाले ऋण अनुबन्धों में एक ऐसी धारा का भी समावेश कर लिया जाता है। जिसके अनुसार कम्पनी की विद्यमान स्थिर सम्पत्तियों पर प्रभार के साथ साथ ऋण के अन्तर्गत प्राप्त कोषों से खरीदी जाने वाली स्थिर सम्पत्तियों पर भी बन्धक (Mortgage) की शर्त लागू होगी। ऐसी व्यवस्था करना वांछनीय समझा जाता है; क्योंकि इससे ऋण लेने वाली कम्पनी अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हो जाती है और अपनी वित्तीय एवं प्रशासनिक नीतियों का निर्धारण इस प्रकार करती है कि जिससे ऋण राशि के मूल एवं ब्याज की अदायगी आने वाले वर्षों में सुचारू रूप से होती रहे।

(3) प्रतिबन्धित शर्ते (Restrictive Covenants)- वित्तीय संस्थाएँ एसे ऋणों के अनुबन्धों में कतिमय ऐसी धराओं का समावेष करने पर अवश्य बल देती हैं जिनसे एक ओर तो ऋण प्राप्त करने वाली संस्था के हित और अधिक सुरक्षित हो जाते हैं। ऐसे प्रतिबन्धों में अनेक प्रकार की शर्ते हो सकती हैं। जैसे- सीमा से अधिक लाभांश वितरण पर प्रतिबन्ध, ऋण देने वाली संस्था की अनुमति के बिना लम्बी अवधि के ऋणों को प्राप्त करने पर प्रतिबन्ध, चल सम्पत्तियों का निर्धारित न्यूनतम स्तर बनाये रखने की शर्त, ऋण पूँजी अनुमान को निर्धारित सीमा से आगे न बढ़ने देने की शर्त आदि। ऋण प्राप्त करने वाली कम्पनी से यह अपेक्षा की जाती है कि जब तक ऋण का पूर्णरूपेण भुगतान न हो जाय, वह इन प्रतिबन्धों एवं शर्तों का पालन करेगी।

ऐसे ऋणों के अनुबन्धों में यह प्रावधान भी रखा जाता है कि मूल एवं ब्याज की किश्तों के भुगतान में त्रुटि होने पर सम्पूर्ण बकाया ऋण परिपक्व हो जायगा तथा ऋण देने वाली संस्था ऋण की वसूली के लिए आवश्यक कार्यवाही करने के लिए स्वतन्त्र होगी। व्यवहार में ऐसी कार्यवाही केवल चरम दशाओं (Extreme cases) में ही की जाती है। सामान्यतः वित्तीय संस्थाएँ संकटग्रस्त कम्पनियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करती है। जिससे कि वे संकट से निकल कर पुनः प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। इसके लिए ऋण की किश्तों का पुनः सूचीकरण (Re- scheduling of Loan Instalments) किया जाता है जिसके अन्तर्गत संकटग्रस्त कम्पनियों को ब्याज में कुछ छूट एवं किश्तों की अदायगी की अवधि में उचित रियायत दी जाती हैं।

(4) परिवर्तनीयता-शर्त (Convertibility Clause) – वित्तीय निगम (Financial corporations) ऋण अनुबन्धों में ऐसी शर्त के समावेश पर जोर देते थे। इस शर्त के समावेश से ऋण प्रदान करने वाले निगम को यह विकल्प प्राप्त हो जाता था कि यदि वह चाहे तो प्रदत्त ऋण के एक निर्धारित भाग को ऋण प्राप्त करने वाली कम्पनी के इक्विटी अंशों में परिवर्तित करवा सकेगा। परिवर्तनीयता की यह शर्त सदैव से निरन्तर विवाद का विषय रही। निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ ऐसी शर्त के न रखे जाने पर जोर देती रहीं। उनके विचार से यह एक ऐसी शर्त है जो निजी क्षेत्र की कम्पनियों के अप्रत्यक्ष राष्ट्रीयकरण (Backdoor Nationalization) का मार्ग प्रशस्त करती है। वित्तीय निगमों के पास निजी क्षेत्र की कम्पनियों के अंशों का एक बड़ा भाग पहले से ही होता है ऐसी शर्त के अनुसार वे अपने ऋणों को अंशों में परिवर्तित करवा के कम्पनी के स्वामित्व एवं प्रबन्ध को हथिया सकते हैं। इसके विपरीत वित्तीय निगमों का तर्क यह है कि परियोजना लागतें (Project Costs) इतनी अधिक बढ़ गयी है कि प्रवर्तकों के लिए इनके अनुरूप इक्विटी पूँजी जुटाना प्रायः असम्भव होता है। अतः इन निगमों से वित्तीय सहायता लेना निजी क्षेत्र की कम्पनियों के लिए एक विवशता होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जब कम्पनियाँ इन निगमों से ऋण प्राप्त करके सम्पन्नता की ओर अग्रसर होती है, तो उस सम्पन्नता में अंशतः भाग लेने का विकल्प इन निगमों को भी दिया जाना चाहिए क्योंकि इन निगमों ने कम्पनियों के निर्माण के प्रारम्भिक काल में ऋण देकर अधिक जोखिम उठाया है। दोनों पक्षों के तर्कों में वजन है और उन्हें नकारा नहीं जा सकता है।

अनिश्चय एवं असमंजस की इस स्थिति को समाप्त करने के उद्देश्य से ही नवीन औद्योगिक नीति (जुलाई 1991) में नये ऋण-समझौतों में परिवर्तनीयता की शर्त (Convertible Clause) नहीं रखे जाने का निर्णय लिया। अब तक 5 करोड़ रुपयों से अधिक के ऋण समझौतों में वित्तीय निगमों को ऋण के 20 प्रतिशत भाग को इक्विटी पूँजी में परिवर्तित करने का विकल्प दिये जाने का प्रावधान रखा जाता था। अब नये ऋण समझौतों के लिए यह शर्त हटा दी गयी है।

(5) पुनर्वित की सुविधाएँ (Refinance Facilities) – पहले मान्यता यह थी कि व्यापारिक बैंकों द्वारा कार्यशील पूंजी के लिए अल्पकालीन ऋण ही देने चाहिए। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इस मान्यता में परिवर्तन हुआ तथा यह माना जाने लगा कि व्यापारिक बैंकों द्वारा कुछ सीमा तक मध्यमकालीन ऋण (Medium-term Loans) भी स्वीकृत करने चाहिए। इसी उद्देश्य से सन् 1958 में उद्योगों के लिए पुनर्वित निगम (Refinance Corporation for Industry Ltd.) की स्थापना की गयी जिसे सन् 1964 में औद्योगिक विकास बैंक (Industrial Development Bank of India) में विलीन कर दिया गया। अब औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) व्यापारिक बैंकों द्वारा उद्योगों को दिये जाने वाले मध्यमकालीन ऋणों के पुनर्वित (Refinance) की सुविधा प्रदान करता है इस सुविधा के कारण ही व्यापारिक बैंक मध्यमकालीन ऋणों में अपने कोषों को उपयोग करने की स्थिति में आ सके हैं। क्योंकि उनके द्वारा इस प्रकार दी गयी ऋण राशि के 80 से 90 प्रतिशत भाग का प्रतिपूर्ति पुनर्वित के द्वारा हो जाती है। इस प्रकार व्यापारिक बैंकों की सावधि ऋणों (Term Loans) में अधिक रूचि जाग्रत हुई है।

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