शिक्षाशास्त्र / Education

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा की विधि | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा में अनुशासन | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और विद्यालय

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा की विधि | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा में अनुशासन | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और विद्यालय | Curriculum of education according to idealism in Hindi | Method of education according to idealism in Hindi | Discipline in education according to idealism in Hindi | Teacher, learner and school according to idealism in Hindi

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम-

शिक्षा के उद्देश्य के अनुकूल शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum) भी होता है। आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य आत्मा की अनुभूति है, पूर्णता की प्राप्ति है तथा सद्गुणों का विकास एवं धारण करना है। इस प्रकार से इसी के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा हो जो शारीरिक, बौद्धिक, चारित्रिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक पूर्णता प्रदान करे। इसके लिए आदर्शवादी मानव जाति के अनुभवों, विचारों, आदर्शों, परम्पराओं, मूल्यों आदि पर विशेष ध्यान देते रहे हैं।

उपर्युक्त दृष्टि से आदर्शवादियों ने पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं से सम्बन्धित किया है। सत्यं शिवं सुन्दरं का आधार लेकर नीचे लिखे विषय एवं क्रियाएँ आदर्शवादी पाठ्यक्रम में रखी गई हैं। प्लेटो का विचार कुछ इस प्रकार का था-

सत्यं

भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, दर्शन, ज्योतिष, बौद्धिक क्रियाएँ ।

शिवं

धर्म, आध्यात्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, समाज-सेवा व मानव सेवा से सम्बन्धित क्रियाएँ, शारीरिक क्रियाएँ, स्वास्थ्य रक्षा की क्रियाएँ, सैनिक शिक्षा, उद्योग।

सुन्दरं

कविता, संगीत, कला- कौशल, निर्माण-रचना सम्बन्धी क्रियाएँ, सफाई सुरक्षा की क्रियाएँ ।

आदर्शवादी पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में प्रो० रॉस का मत सर्वोत्तम मिलता है। इन्होंने कहा कि “शारीरिक और आध्यात्मिक क्रियाएँ वास्तव में एकदम अलग-अलग नहीं हैं

बल्कि काफी मात्रा में उनका आधार एक ही है। नैतिक मूल्य जो आध्यात्मिक हैं। शारीरिक क्रियाओं में देखे जा सकते हैं।”

इस आधार पर प्रो० रॉस ने शारीरिक क्रियाओं से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में शरीर रक्षा, स्वास्थ्य विज्ञान, खेल-कूद, व्यायाम, कौशल, तकनीकी विषय एवं तत्संबंधी सभी क्रियाओं को रखा है। दूसरी ओर आध्यात्मिक क्रियाओं से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में बौद्धिक, सौंदर्यात्मक, धार्मिक विषय एवं क्रियाएँ हैं अर्थात् भाषा, साहित्य, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, नीतिशास्त्र, आचरण-व्यवहार, ललित कलाएँ, दर्शन, धर्मशास्त्र, आध्यात्मशास्त्र, तर्कशास्त्र आदि।

प्रो० हरबार्ट ने भी प्रो० रॉस का विचार स्वीकार किया है यद्यपि इन्होंने भाषा, साहित्य, इतिहास तथा कला को आध्यात्मिक विकास के लिए अधिक महत्वपूर्ण माना है। प्रो० हार्न ने आधुनिक समाजवादी विचार से पाठ्यक्रम बताया है जिसमें विज्ञान, कला, व्यवसाय को प्रमुख माना है। प्रो० नन का व्यक्तिवादी मत है। इन्होंने शारीरिक, सामाजिक, नैतिक और धार्मिक क्रियाओं का एक वर्ग बनाया है और उसमें व्यायाम, समाज-शिक्षा और धर्मशास्त्र को रखा है। दूसरे वर्ग में साहित्यिक सौंदर्यात्मक तथा अन्य क्रियाओं के साथ विषयों को जोड़ा है जैसे भाषा, साहित्य, कला, संगीत, हस्तकौशल, विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल आदि ।

भारतीय आदर्शवाद के मानने वालों में भी कुछ ऐसे ही विचार मिलते हैं। अपने देश में शिक्षा (विद्या) के द्वारा मुक्ति प्राप्त की जाती रही। इसीलिए वैदिक, ब्राह्मण एवं बौद्धिक काल में दर्शन, धर्म, आध्यात्मशास्त्र को पाठ्यक्रम में प्रथम स्थान दिया जाता था। भाषा, साहित्य, संगीत, कला, कौशल एवं उद्योग व्यवसाय को दूसरा स्थान दिया जाता था। दोनों प्रकार के पाठ्यक्रम को आदर से देख रहे हैं। आधुनिक समय के भारतीय आदर्शवादियों ने प्राचीन काल के आदर्शवादियों की अपेक्षा पाठ्यक्रम को व्यापक दृष्टि से देखा है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार को हम प्रतिनिधित्व रूप देते हैं, प्लेटो  के विचार स्वामी विवेकानन्द से कुछ भिन्न अवश्य है जैसा के दोनों को देखने से ज्ञात होता है।

(क) आध्यात्मिक विकास से संबन्धित पाठ्यक्रम- धर्म, दर्शन, पुराण, उपदेश, भ्रमण, कीर्तन-भजन, साधु संगति, आश्रमवास और ध्यान-मनन की क्रियाएँ।

(ख) लौकिक विकास से सम्बन्धित पाठ्यक्रम- संस्कृत भाषा, मातृभाषा, अंग्रेजी भाषा, अन्य विदेशी भाषा, विज्ञान, गणित, तकनीकी शास्त्र, गृह-विज्ञान, उद्योग-कौशल, संगीत, कला, कृषि, उद्योग, व्यवसाय, वाणिज्य-अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अभिनय, खेल-कूद, व्यायाम, भ्रमण, समाज एवं मानव सेवा की क्रियाएँ ।

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा की विधि-

आदर्शवादियों ने शिक्षा की विभिन्न विधियों का प्रयोग प्राचीन काल से आज तक किया है। सुकरात के समय से ही आदर्शवादी (1) प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग करते रहे। प्लेटो, अरस्तू और इनके बाद आज तक शिक्षाशास्त्री इस विधि से काम लेते रहे। (2) संवाद या वाद-विवाद विधि जिसे प्लेटो ने डाइलेक्टिक विधि  कहा है का प्रयोग प्राचीन यूनान तथा भारत में भी हुआ। (3) तर्क-विधि का प्रयोग अरस्तू ने किया जिसमें आगपन और निगमन दोनों पद्धतियों को काम में लाया गया। इस तर्क- विधि (Logical Method) का प्रयोग आधुनिक काल के आदर्शवादी हीगेल ने किया। (4) अभ्यास और आवृत्ति विधि का प्रयोग पेस्टॉलोजी ने किया । (5) क्रिया एवं खेल-विधि का प्रयोग फ्रोबेल ने किया। भारतीय आदर्शवादियों ने (6) स्वानुभव एवं स्वक्रिया विधि के प्रयोग पर जोर दिया। (7) आत्मानुभूतिर और अन्तर्दृष्टि की विधि पर भी भारतीय विचारक जोर देते रहे हैं। आधुनिक समय में (8) व्याख्यान विधि का प्रयोग आदर्शवादी दृष्टिकोण को बताता है क्योंकि शब्दों के माध्यम से इसमें ज्ञान दिया जाता है। (9) पाठ्यपुस्तक विधि व्याख्यान का लिखित रूप है क्योंकि व्याख्यान में मौखिक रूप से ज्ञान प्रदान किया जाता है जबकि पाठ्यपुस्तक की विधि में लिखित विचार प्रस्तुत किये जाते है।

आदर्शवाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में हम प्लेटो द्वारा बताई गई शिक्षा विधि को यहाँ प्रस्तुत करेंगे। प्लेटो ने नीचे लिखी शिक्षा विधियों के प्रयोग के लिए कहा है और स्वयं इनका प्रयोग भी किया है- (क) तर्कपूर्ण विवाद विधि (ख) वार्तालाप विधि, (ग) प्रश्नोत्तर विधि, (घ) आगमन एवं निगमन विधि, (ङ) व्यावहारिक क्रिया विधि, (च) समस्या समाधान विधि, (छ) स्वाध्याय विधि, (ज) खेल विधि, (झ) अनुकरण-विधि।

स्वामी विवेकानन्द भारतीय प्रतिनिधि के रूप में लिये गये हैं और उनके अनुसार शिक्षा की विधियाँ नीचे दी जा रही हैं:-

(क) योग विधि, (ख) श्रवण, मनन, विदिध्यासन की विधि, (ग) ध्यान-मनन से केन्द्रीयकरण की विधि, (घ) उपदेश की विधि, (ङ) अनुकरण की विधि, (च) साधु संगति की विधि (छ) भ्रमण विधि, (ज) क्रिया और व्यवहार की विधि।

दोनों शिक्षा-शास्त्रियों द्वारा समर्पित शिक्षाविधियों में काफी समानता पाई जाती है और कुछ उनकी अपनी-अपनी शिक्षा विधियाँ हैं, जैसे प्लेटो की डाइलेक्टिक विधि है तो विवेकानन्द की केन्द्रीयकरण की विधि है। ऐसी भिन्नता दोनों देशों की सांस्कृतिक परम्पराओं के अलग-अलग होने के कारण पाई जाती है।

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा में अनुशासन-

अनुशासन व्यक्ति के द्वारा आदर्शों और आदेशों की स्वीकृति में पाया जाता है। अनुशासन वैयक्तिक रूप में अपनी इन्द्रियों पर निग्रह और नियन्त्रण है और सामूहिक रूप में दूसरे के संकेतों, आदेशों और नियमों का पालन है। आदर्शवादी आरम्भ से बच्चों को इस प्रकार के नियन्त्रण एवं आदेश पालन में विश्वास रखते हैं क्योंकि बिना अनुशासन के शिक्षा नहीं होती है। कहावत है “दण्ड छोड़ा कि बालक बिगड़ा” (Spare the rod and spoil the child) । वैयक्तिक एवं सामाजिक दमन के द्वारा अनुशासन स्थापित होता है ऐसा आदर्शवादी कहते हैं। व्यक्ति अपनी इच्छाओं, अपने सुख अपने भोग पर नियन्त्रण रख कर अनुशासित होता है। समाज के दण्ड से  व्यक्ति अनुशासन मानता है। अतएव शारीरिक एवं मानसिक दण्ड एवं दमन से आदर्शवादी लोग अनुशासन स्थापित करने के पक्ष में हैं। प्रो० हार्न ने लिखा है कि “अनुशासन का आरम्भ बाह्य रूप से होता है परन्तु यह पर्याप्त हो यदि इसका अन्त आदत-निर्माण और आत्मनियन्त्रण के जरिए से आन्तरिक रूप में हो।”

पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में प्लेटो भी दमनवादी सिद्धान्त को मानता था वह दण्ड देने के पक्ष में था। उनका विचार था कि बालक को नियन्त्रण में रखना चाहिए, यहाँ तक नहींकि खेल-कूद में भी स्वच्छन्दता न आने पावे। यहाँ तक शारीरिक अनुशासन की बात थी। मानसिक अनुशासन का प्रमाण उसके द्वारा ‘एकाडेमी’ संस्था के द्वार पर लिखाया गया था कि ‘बिना गणित के ज्ञान के कोई भी प्रवेश न करे।’ इस कारण उसने पाठ्यक्रम में गणित पर सबसे अधिक बल दिया क्योंकि इसके फलस्वरूप मानसिक शक्तियों पर अनुशासन होता है। इसके लिए उसने नीचे क्रम से अध्ययन के विषय रखे थे-

गणित → ज्यामिति → हारमोनिक्स डाइलेक्टिस (तर्क तथा दर्शन) ।

समाज में अनुशासन रखने के लिए उसने नेताओं के आदेशों को पालन करने के लिए कहा। इसके लिए उसने समाज में वर्ग-विभेद किया और प्रत्येक वर्ग को अपने कर्तव्य पालन के लिए कहा। इस प्रकार उसने व्यवस्थित तथा संगठित समाज की स्थापना पर जोर दिया और इसके संचालन के लिये अपने सिद्धान्त “लाजु” और “रिपब्लिक” पुस्तकों में रखा। स्वासी विवेकानन्द ने “ब्रह्मचर्य” पालन के द्वारा सभी कुछ सम्भव बताया है। ब्रह्मचर्य पालन में छात्र साधारण, शुद्ध, राजरहित, गुरु के आदेशों और वोआदर्शों के अनुकरण से कार्य करता है। स्वामी जी कहना था कि “पहले आज्ञा का पालन करना सीखो और तुम एक योग्य गुरु हो जाओगे।” (First learn to obey and you will be fit to be a master) । यह नियन्त्रण आत्म प्रेरणा से होना चाहिए न बाहरी दबाव से। आत्म प्रेरणा के लिए गुरु का प्रभाव आवश्यक होता है ऐसा विचार स्वामी विवेकानन्द ने प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है कि “बिना अध्यापन के व्यक्तिगत प्रभाव के कोई शिक्षा (अनुशासन) सम्भव नहीं है।” (Without the influence of the personal life of teacher there would be no education (discipline) । ऐसी स्थिति में स्वामी जी के अनुसार अनुशासन गुरु-शिष्य के व्यक्तिगत सम्बन्धों का परिणाम है। (Discipline is the result of teacher-taught personal relations) । गुरु और शिष्य में एक आध्यात्मिक सम्बन्ध होना चाहिए, तभी अनुशासन सच्चे अर्थ में होता है। यहाँ पर प्लेटो के विचार से स्वामी विवेकानन्द के विचार कुछ भिन्न हैं।

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और विद्यालय-

आदर्शवाद शिक्षक को शिक्षा का केन्द्र एवं प्रमुख मानता है क्योंकि बिना उसके बालक को सही आदर्श, सही ज्ञान, सही मार्ग नहीं मिलता है। शिक्षक ज्ञान-गुण का भण्डार हो तभी वह आदर्श बन सकता है। आदर्शवाद इस प्रकार शिक्षक को अनिवार्यतया महान व्यक्ति बनने के लिये जोर देता है। पाश्चात्य देशों में यही धारणा रही है। भारत में इसके साथ आध्यात्मिक तत्व भी जोड़ दिया गया और शिक्षक एक महान आत्मा, ऋषि मुनि, तपस्वी व्यक्ति होता रहा, तभी उसे “गुरु” (महान व्यक्ति) कहा गया जिसे आत्मानुभूति हो, ईश्वर तक पहुँच हो, उसे सर्वोत्तम स्थान परदिया गया। जैसा कि नीचे का श्लोक बताता है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥

यद्यपि समय बदल गया और आज शिक्षक को गौण स्थान दिया गया है फिर भी उसकी महत्ता कम नहीं हो पाई है। आधुनिक आदर्शवादी शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल ने शिक्षक श्रीको बाल-उद्यान का माली (रक्षक) माना है। इससे भी महानता की ध्वनि मालूम होती है क्योंकि बिना शिक्षक के शिक्षार्थी का विकास करना, आगे बढ़ना सम्भव नहीं माना जाता। उसके देखभाल की बड़ी आवश्यकता समाज में दिखाई देती है। आज जनतन्त्र का बोलबाला है और समाज में नेतृत्व की आवश्यकता है, मार्ग-दर्शन की आवश्यकता है जिसका भार शिक्षक पर ही होता है। प्राचीन काल में प्लेटो ने “दार्शनिक राजा” की अवधारणा रखी जिसमें ज्ञानी व्यक्ति या शिक्षक ही उक्त पद ले सकता था। अतः आदर्शवाद शिक्षक को एक आवश्यकता समझता है (So idealism regards teacher or educator a necessity) I

शिक्षक की आवश्यकता आदर्शवादियों के अनुसार कई दृष्टियों से बताई गयी है-

(1) पूर्ण अनुभव-ज्ञान तथा बौद्धिक विकास के विचार से शिक्षक की नितान्त आवश्यकता दिखाई देती है।

(2) शिक्षार्थी को सर्वगुण सम्पन्न व्यक्तित्व प्रदान करने के लिए, उसके सर्वतोन्मुखी विकास के लिए शिक्षक की आवश्यकता है।

(3) व्यक्ति को आत्मा की अनुभूति करने में शिक्षक की सहायता आवश्यक होती है, बिना गुरु के आत्मानुभूति सम्भव नहीं है।

(4) गुरु के प्रसाद से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है, आध्यात्मिक विकास होता है, ऐसी धारणा अपने देश में प्रचलित है।

(5) आधुनिक दृष्टि से शिक्षक विभिन्न प्रकार के निर्देशन के लिये आवश्यक माना जा रहा है जिससे शीघ्र प्रगति हो।

(6) जनतन्त्र में समाज का नेतृत्व करने के विचार से आज भी शिक्षक की आवश्यकता है जो समाज की एक विवेकपूर्ण इकाई है।

(7) अनुसंधान के द्वारा सत्यं शिवं-सुन्दरं को प्रमाणित और सिद्ध करने में केवल शिक्षक ही ऐसा व्यक्ति समझा जाता है।

(8) व्यक्तिगत अनुशासन और आत्म-नियन्त्रण की दृष्टि से भी शिक्षक आदर्श माना जाता है, ऐसा सभी आदर्शवादी मानते हैं।

(9) विद्यालयों के संचालन, संगठन, शिक्षाकार्य सम्पादन के लिए एकमात्र शिक्षक ही अधिकारी होता है, अतः उसकी आवश्यकता पड़ती है।

शिक्षार्थी भी आदर्शवाद की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं होता है। फ्रोबेल ने शिक्षार्थी को शिक्षा का केन्द्र कहा है। प्राचीन काल में शिष्य गुरु-गृह-वासी कहा जाता था और जब वह गुरु से शिक्षा ग्रहण करके घर वापस आने लगता था तो शिक्षार्थी बाद में धर्म प्रचार करने का कार्य करने लगता था और ‘परिव्राजक” हो जाता था। अतएव स्पष्ट है कि शिक्षार्थी भी शिक्षक के समान महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। आधुनिक विचारकों का मत है कि बालक-शिक्षार्थी का भौतिक विकास करके उसे धर्म-अध्यात्म की ओर आगे बढ़ाया जावे। आदर्शवाद इस प्रकार से शिक्षार्थी के अभ्युदय के लिये जोर देता है। आदर्शवादी विचारधारा में इस प्रकार शिक्षा के लिए शिक्षार्थी एक आवश्यकता है। (Thus educed is a necessity for education in idealism) | सही भी है कि यदि शिक्षार्थी न होंगे तो शिक्षक करेगा ही क्या ? किसे शिक्षा देगा ? किस प्रकार अपने ज्ञान को प्रकट करेगा ? क्या अनुसंधान करेगा? अस्तु, शिक्षार्थी की आवश्यकता कई दृष्टि से होती है-

(1) शिक्षक द्वारा संचित अनुभव-ज्ञान को दूसरों तक पहुँचाने के लिए शिक्षार्थी की आवश्यकता पड़ती है।

(2) शिक्षा के पाठ्यक्रम और शिक्षा के विधि की उपयुक्तता जाँचने के लिए भ शिक्षार्थी की आवश्यकता होती है।

(3) समाज के लिए आदर्श व्यक्तियों का निर्माण करने में शिक्षार्थी की आवश्यकता होती है

(4) शिक्षा के प्रसार एवं प्रचार की दृष्टि से भी शिक्षार्थी आवश्यक दिखाई देता है, क्योंकि ये ही दूर-दूर से आते हैं और दू तक ज्ञान को ले जाते हैं।

(5) सत्यं शिवं सुन्दरं का सही मूल्यांकन करने के लिए शिक्षार्थी की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि शिक्षक एवं शिक्षार्थी के सहयोगी प्रयत्न से इन शाश्वत मूल्यों का विश्लेषण एवं समझना सरल होता है।

(6) शिक्षक और शिक्षालय के अस्तित्व को कायम रखने के विचार शिक्षार्थी की आवश्यकता होती है क्योंकि शिक्षार्थी के बिना इन दोनों की कोई भी नहीं पूछता है।

(7) समाज एवं देश को आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने का श्रेय शिक्षार्थी को दिया जाता है। गांधी जी ने शिक्षार्थी के बल पर ही देश को स्वतन्त्र किया। आज समाज सेवा योजना का कार्यक्रम शिक्षा में एक आवश्यक अंग समझा जा रहा है जिसे कार्यान्वित करना शिक्षार्थी का ही कम है

विद्यालय के सम्बन्ध में आदर्शबाद के अपने विचार हैं। विद्यालय सांसारिक ज्ञान एवं आध्यात्मिक अनुभूति के केन्द्र होते हैं। प्राचीन भारत में विद्यालय गुरु का कुल और आश्रम होता था जहाँ पारिवारिक ढंग से शिक्षा मिलती थी। बाद में मठों के साथ संयुक्त होकर विद्यालय एवं विश्वविद्यालय बने आज समाज के विभिन्न स्थानों पर विद्यालय खोले गये हैं। कुछ भी हो आदर्शवाद विद्यालय को सामाजिक पर्यावरण का एक अंग मानता है, एक आवश्यकता समझता है। शिक्षक के द्वारा सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को प्रदान करने का उपयुक्त स्थल विद्यालय होता है (School is the Proper place for providing social, ethical and spiritual values by the teachers) |

प्रो० रॉस ने कहा है कि “शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच होने वाली क्रियाएँ विद्यालय में ही सम्भव होती हैं।” उनके अनुसार आत्मानुभूति और मुक्ति को प्राप्ति के लिए प्रयत्न अध्यापक और विद्यार्थी दोनों एक साथ विद्यालय के पर्यावरण में ही करते हैं। (Both teacher and student together attempt for achieving self realization and salvation in the school environment alone) | प्रो० नन का आदर्शवादी विचार हैं कि “विद्यालय वह स्थल है जहाँ निश्चित प्रकार की क्रियाओं को अनुशासित ढंग से किया और कराया जाता है”P (School is the place where activities of definite nature are being performed in a disciplined manner) [ उदाहरण के लिए कक्षा में व्यवस्थित रूप से बैठकर शिक्षा लेने की किया है, शान्ति, श्रृद्धा, सम्मान के साथ शिक्षक की बातों को सुनने की क्रिया है। वास्तव में कक्षा में विद्यार्थी सत्य की प्राप्ति शिवं के लिए सुन्दर के साथ करता है। कक्षा में असुन्दर अशोभनीय और उच्चारण व्यवहार नहीं किया जाता बल्कि वहा छात्र सुष्ठ और सुन्दर व्यवहार  करना सीखता है। अतः विद्यालय. आदर्शवाद के अनुसार एक ऐसा सुन्दर, शुभ और ज्ञानप्रद वातावरण से युक्त स्थान और संस्था है (So school according to idealism is a place and an institution replete will beauirai, good and knowledge-proving environment)। यहां व्यक्ति  जीवन की अच्छी बातें, अच्छे आचरण, आत्मनियंत्रण, समाज-सेवा के गुण, धन, कर्तव्य  और अन्त में मुक्ति लाभ का साधन प्राप्त करता है। अतः भौतिक एवं आध्यात्मिक अभ्युदय का साधन विद्यालय होता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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