शिक्षाशास्त्र / Education

प्रकृतिवाद का तात्पर्य | प्रकृतिवाद और भौतिकवाद | भौतिकवाद का तात्पर्य | भौतिकवाद तथा प्रकृतिवाद में समानता | भौतिकवाद या पदार्थवाद: भारतीय व पाश्चात्य दृष्टिकोण

प्रकृतिवाद का तात्पर्य | प्रकृतिवाद और भौतिकवाद | भौतिकवाद का तात्पर्य | भौतिकवाद तथा प्रकृतिवाद में समानता | भौतिकवाद या पदार्थवाद: भारतीय व पाश्चात्य दृष्टिकोण | Meaning of naturalism in Hindi | Naturalism and Materialism in Hindi | Meaning of materialism in Hindi | Similarities between materialism and naturalism in Hindi | Materialism or Materialism: Indian and Western Approaches in Hindi

आदर्शवाद विचार और संप्रत्यय से सम्बन्धित रहा जिससे यह एक ऐसी विचारधारा बनी कि साधारण व्यक्ति उससे बंध गया। रूढ़िवादी भावनाओं को मान्यता मिली, व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही। फलस्वरूप एकाधिकार एवं प्राधिकार का प्रभुत्व फैला। इसके विरुद्ध विचारकों ने आवाज उठाई और चूँकि अठारहवीं शताब्दी में विभिन्न क्षेत्रों में क्रान्तियाँ हुई इसलिए भी आदर्शवाद, प्राधिकारवाद, प्रभुतावाद, औपचारिकताबाद, एकतन्त्रवाद समाप्त हुआ। इनके स्थान पर शुद्धिवाद, पवित्रतावाद, जनतन्त्रवाद एवं प्रकृतिवाद का प्रचार हुआ। यूरोप में बौद्धिक दमन के विरोध में वाल्टेयर का विवेकवाद तथा प्रबोधवाद आगे बढ़ा और रूसो ने सामाजिक एवं राजनीतिक दमन के विरोध में प्रकृतिवाद एवं मानववाद की विचारधारा चलाई । इस प्रकार प्रकृतिवाद एक प्रकार से आदर्शवाद की विरोधी विचारधारा कही जाती है।

प्रकृतिवाद का तात्पर्य

जो प्रकृति हमारे चारों ओर पाई जाती है वह सत्य है। इसमें पाये जाने वाले सभी पदार्थ, जीव, मनुष्य का अपना अस्तित्व है। सम्पूर्ण जगत की रचना का कर्ता और कारण यह प्रकृति है। प्रकृति में पाये जाने वाले विभिन्न पदार्थों के बीच क्रिया होती है, इसके संयोग से विभिन्न रचनाएँ होती हैं। मनुष्य भी एक प्राकृतिक रचना है और उसका मन, उसकी आत्मा सभी कुछ पदार्थ-जन्य है। शरीर प्रकृति की देन है, शरीर के नष्ट होने पर मन-आत्मा सब कुछ नष्ट होता है अतएव मन-आत्मा का आध्यात्मिक अस्तित्व न होकर वास्तविक अस्तित्व है। ऐसे विचार एवं चिन्तन जिस दर्शन से हुआ उसे प्रकृतिवाद का नाम दिया गया।

शिक्षा में प्रकृतिवाद 

प्रो० हॉकिंग के विचार से-“प्रकृतिवाद तत्व मीमांसा का वह रूप है जो प्रकृति की बड़ी सम्पूर्ण वास्तविकता मानता है। अर्थात् यह प्रकृति से बढ़कर किसी अन्य वस्तु या परलोक को नहीं मानता है।”

प्रो० थॉमस और लैंग के मतानुसार- “प्रकृतिवाद आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता है, और विश्वास करता है कि अन्तिम वास्तविकता भौतिक है, आध्यात्मिक नहीं।”

प्रकृतिवाद वास्तव में प्रकृति में, उसके नियमों में, उसकी क्रियाओं में विश्वास करना  है और इस विश्वास से सम्बन्धित धारणा प्रकृतिवाद का रूप ले लेती है। इसी दृष्टि से प्रो० पेरी ने कहा है कि “प्रकृतिवाद विज्ञान नहीं है बल्कि विज्ञान के बारे में एक अभिधारणा है।”

इस कथन से एक संकेत मिलता है कि प्रकृतिवाद की वस्तुओं एवं क्रियाओं के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार “प्रत्येक वस्तु प्रकृति से उत्पन्न होती है और प्रकृति में लय हो जाती है।” (Every thing comes from nature and returns to nature)। इससे स्पष्ट है कि प्रकृति का अर्थ व्यापक है और इस आधार पर प्रकृतिवाद भी एक व्यापक विचारधारा है। इस विचारधारा में मानव अनुभव से परे की चीजों को जैसे परलोक, ईश्वर, आध्यात्मिक जगत, आत्मा को-त्याग दिया गया है।” ऐसा विचार प्रो० जी० एच० जायस का है।”

प्रो० वार्ड ने अपने विचार इस सम्बन्ध में थोड़ा अधिक स्पष्ट रूप से दिया है। इन्होंने कहा कि “प्रकृतिवाद वह सिद्धान्त है जो प्रकृति से ईश्वर को अलग करता है और आत्मा  को पदार्थ के अधीन मानता है तथा अपरिवर्तनशील प्राकृतिक नियमों को सबसे ऊँचा स्थान देता है।”

प्रकृतिवाद के अनुसार चारों ओर की चीजें जैसे सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी, समुद्र, पहाड़, वर्षा, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी, इन चीजों में होने वाली क्रियाएँ जैसे गर्मी से बादल बनना, फिर पानी बरसना, खेतों में अन्न-घास उत्पन्न होना, इन चीजों में पाये जाने वाले वैज्ञानिक तत्व जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूटॉन, इन सब चीजों एवं इनकी क्रियाओं के सम्बन्धित शाश्वत नियम जिनसे तगाम अन्य चीजों का निर्माण एवं विघटन होता है, ये सब कुछ सत्य हैं, अपना अस्तित्व रखती हैं और हमें इनमें पूर्ण विश्वास रखना चाहिए कि इनके अलावा ईश्वर, आत्मा, ब्रह्म कुछ भी नहीं है। जहाँ ऐसा दृष्टिकोण: एवं चिन्तन होता है वहाँ प्रकृतिवाद होता है। अतः प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जिसमें प्रकृति के भौतिक पदार्थ और क्रियाएँ मूल रूप में सत्य हैं और उनका अस्तित्व है, कोई ईश्वर और आत्मा नहीं है, सभी रचना प्रकृति की देन है। (Naturalism is that philosophical system which accepts material things and activities of nature true and they have their own existence, there is no God and Soul, ail creation is the gift of nature.)

प्रकृतिवाद और भौतिकवाद

प्राचीन पाश्चात्य और भारतीय विचारकों ने आदर्शवाद के विचारों के साथ भौतिक वस्तुओं का भी अस्तित्व स्वीकार किया। प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने विचारजगत के साथ- साथ वस्तु-जगत की भी सत्ता स्वीकार की और अपनी पुस्तक ‘फिजिक” में इसकी व्याख्या की। आज के युग में कॉम्टे, बेकन, हॉब्स, वाल्टेयर, स्पेन्सर, हक्सले, बर्नार्ड शा, सैम्युएल बटलर प्रभृति ने भौतिक जगत में विश्वास बढ़ाया और इसके फलस्वरूप केवल प्रकृतिवाद का ही विकास न हुआ बल्कि भौतिकवाद भी शिक्षा जगत में साथ-साथ बढ़ता है।

भारतीय दर्शन के इतिहास में वैदिक काल में आध्यात्मिक जगत तथा भौतिक जगत दोनों को मान्यता मिली है। इस भौतिक जगत की रचना पाँच भौतिक तत्वों- पृथ्वी, जल, प्रकाश सूर्य और वायु से हुई यह कहा गया, बाद में चारबाक् दर्शन में जड़-प्रकृति जगत व्यवस्था में  सहायक मानी गई। वैदिक काल के पाँच तत्वों के बजाय चार तत्व – पृथ्वी, जल, पावक, समीर-ही स्वीकार किये गये। जैन तथा बौद्ध दर्शन में ईश्वर को न मानने से भौतिकवादी दृष्टिकोण बताया गया। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष की कल्पना की गई और दोनों को क्रमशः जड़ व चेतन रूप दिया गया। वैशेषिक दर्शन में समस्त पदार्थों की रचना परमाणुओं और उनकी पारस्परिक क्रिया के कारण होती है जैसा कि आधुनिक विज्ञान मानता है। वैज्ञानिक खोजों ने भौतिकवादी दृष्टिकोण को पुष्ट कर दिया और शिक्षा विज्ञान तथा तकनीकी शास्त्र को आधार रूप में स्वीकार करने से शिक्षा में भी भौतिकवाद का प्रचलन एवं प्रयोग हो गया यद्यपि वह प्रकृतिवाद के साथ तथा कुछ यथार्थवाद या वस्तुवाद (Realism) के साथ जुड़ गया। ईश्वरपरक विश्वास होने के साथ-साथ आधुनिक भारतीय शिक्षाशास्त्री किसी न किसी रूप में भी भौतिकवादी विचार रखते रहे। अतः स्पष्ट है कि प्रकृतिवाद के अध्ययन के साथ भौतिकवाद पर भी थोड़ा-सा विचार कर लिया जावे।

भौतिकवाद का तात्पर्य—

मूल तत्व को तत्वमीमांसकों ने अनाध्यात्मिक अथवा भौतिकवादी रूप दिया। इस प्रकार भौतिकवाद आरम्भ हुआ। भौतिकवाद का कथन है कि पुद्गल या पदार्थ (Matter) ही एक मात्र मूल तत्व है। मन या आत्मा भी इसी पदार्थ की उपज है। इस प्रकार भौतिकवाद पुद्गल की स्वतन्त्र सत्ता मानता है और उसी से सभी वस्तुओं का निकलना या सृजन होना बताता है। अतएव आत्मा भौतिक वस्तु है इस आधार पर भौतिकवाद तथा आध्यात्मवाद दोनों एकतत्ववाद के रूप कहे जाते हैं।

भौतिकवाद के अनुसार “पुद्गल का अस्तित्व है। इसके दो गुण हैं, फैलाव और ठोसपन, इसकी क्रिया का प्रारम्भिक रूप गति है।”

-प्रो० पालसन

भौतिकवाद सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह पदार्थों के गुणात्मक अन्तर को परिमाणात्मक अन्तर में बदल देता है। इसकी पुष्टि में शक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को प्रकट किया जाता है। उदाहरण के लिए विद्युत, प्रकाश गति को परस्पर रूपान्तरित किया जाता है। भौतिक शक्तियों को जीवन शक्तियों में भी बदला जा सकता है। इस आधार पर जीवन की प्राणशक्ति एक प्रकार की रासायनिक या यांत्रिक शक्ति होती है। अतः जीवन पदार्थ से ही उत्पन्न हुआ है ऐसा भौतिकवाद कहता है। निर्जीव पुद्गल में भौतिक शक्ति से जीवन होता है। अतएव जीवन या प्राण शक्ति केवल भौतिक शक्ति की तो हुई। मनुष्य या अन्य प्राणी में मनस् मस्तिष्क और स्नायु में एकत्र होने वाली शक्ति का उच्चतम विकास है। अतः इस भौतिक शक्ति को हम संवेदन, अनुभूति, वेदना, ज्ञान- चेतना की विभिन्न शक्तियों में बदल सकते हैं। भौतिकवाद मनस और शरीर में कार्य- कारण का सम्बन्ध होना बताता है। इसी प्रकार से सारा जगत भौतिक परमाणुओं के बिना किसी प्रयोजन के आकारण ही एकत्रित हो जाने के कारण बन गया है। परमाणु गति के नियम के अनुसार परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं।

भौतिकवाद तथा प्रकृतिवाद में समानता—

भौतिकवाद तथा प्रकृतिबाद दोनों भौतिक या चारों ओर पाई जाने वाली वस्तुओं को प्रमुखता देते हैं। दोनों विचारधारायें मन और आत्मा को नहीं मानते तथा अणु-परमाणु में और उनकी गतिशीलता में विश्वास करते हैं; मनुष्य और अन्य प्राणियों को यन्त्रवत् कार्य करने वाला मानते हैं। जो क्रिया प्राणी करता है उसमें कारण-परिणाम का सम्बन्ध होता है। सभी प्राणी में विकास होता है और यह विकास यान्त्रिक रूप से होता है, स्वतः होता है। भौतिक या प्राकृतिक नियम शाश्वत हैं; ऐसा दोनों मानते हैं। भौतिकवाद और प्रकृतिवाद दोनों प्राकृतिक विज्ञानों में विश्वास रखते हैं तथा सारा संसार वैज्ञानिक सिद्धांतों के बल पर गतिमान पाया जाता है। भौतिकवाद का एक रूप चार्वाक भौतिकवाद है जिसमें सुखवादी भावना पायी जाती है। प्रकृतिवाद भी इस सुखवादी सिद्धान्त को स्वीकार करता है। प्रकृति को सुख का साधन माना जाता है जैसा रूसो तथा वईसवर्थ, शेली, कीट्स प्रभृति कवियों ने भी स्वीकार किया है। अपने देश के शिक्षाशास्त्री टैगोर ने भी प्रकृति की गोद में सुख, शान्ति एवं सौन्दर्य की सच्ची अनुभूति की। अतएव स्पष्ट है कि भौतिकवाद तथा प्रकृतिवाद में काफी  समानता होती है। अधिकतर विचारकों ने प्रकृतिवाद को भौतिकवाद का एक रूप बनाया  है। इस सम्बन्ध में नीचे दिये गये शब्द ध्यान देने योग्य हैं-

“आधुनिक समय में भौतिकवाद शब्द का स्थान प्रकृतिवाद शब्द ने ले लिया है। भौतिकवाद पुद्गल के प्रत्यय पर जोर देता है तथा जीवन को संश्लिष्ट भौतिक तथा रसायनिक शक्ति मानता है तथा मन को मस्तिष्क की ही उपज मानता है। प्रकृतिवाद  शक्ति, गति, प्रकृति के नियमों तथा कार्यकारण सम्बन्ध के प्रत्ययों पर जोर देता है। वह भौतिक विज्ञानों, पदार्थ तथा रसायन विज्ञान पर जोर देता है तथा इसके विचार में पदार्थ जीवन तथा मन के जगत की सन्तोषप्रद व्याख्या भौतिक तथा रासायनिक नियमों द्वारा की जा सकती है। यह ‘शक्ति के संरक्षण’ तथा ‘विकास’ के सिद्धान्त पर जोर देता है। अब यह जैविक तथा मानसिक विज्ञानों के महत्व को भी मानने लगा है तथा पुद्गल, जीवन और मन को विकास की भिन्न मंजिलें मानने लगा है।”

भौतिकवाद या पदार्थवाद: भारतीय व पाश्चात्य दृष्टिकोण

भौतिकवाद या पदार्थवाद के अनुसार भौतिकता ही सारतत्व है न कि आध्यात्मिकता। इसी कारण संसार की सभी वस्तु मानव सुख का हेतु है। भौतिकवाद जड़ वस्तु को चेतनवस्तु से अधिक महत्व देता है और जड़ से ही चेतना मिलती है। पेड़ को देखकर मनुष्य सोचता है कि यह क्या है ? और एक निर्णय लेता है कि यह पेड़ है। जो  वस्तु में गति होती है क्रिया होती है। उदाहरण के लिए पानी, बिजली आदि में गति पायी जाती है। जीवन में जड़ पदार्थ (शरीर) से बना हुआ है। भौतिकवाद शरीर और मन में कारण और परिणाम का सम्बन्ध देखता है। आधुनिक युग में भौतिकवाद का सम्बन्ध मानवीय श्रम, उद्योग और पूँजीवादिता से हो गया है जिससे ईश्वर, धर्म, अंधविश्वास एवं शोषण के विरुद्ध संघर्ष होता है।

भारतीय दृष्टिकोण से भौतिकवाद नास्तिकवादी था, धर्म की कठोरताओं का विरोधी था, वेद की परम्पराओं को न मानने वाला था। भारतीय भौतिकवाद इस दृष्टि से बौद्ध एवं जैन मतों से जुड़ा रहा । एक अन्य विशेषता थी खाने-पीने आराम से रहने की प्रवृत्ति जिसे चार्वाक मत माना जाता है। इस मत के अनुसार जब तक जियो सुख से जियो, ऋण लेकर घी पीकर, मौज उड़ाओ क्योंकि यही स्वर्ग है और दूसरा जन्म नहीं होगा या होगा कोई नहीं जानता। भावी सुख-भोग की नहीं वर्तमान सुख-भोग की प्राप्ति पर भारतीय भौतिकवाद ने बल दिया है।

पाश्चात्य दृष्टिकोण के भौतिकवाद सुखी, सुखद एवं ऐश्वर्यवान जीवन का प्रतीक है जिसमें किसी ईश्वर या पैगम्बर का कोई दखल न हो। धर्म एक विडम्बना एवं सुखी जीवन में रुकावट है इसलिए त्याज्य है। रूस में ऐसे ही भौतिकवाद का आरम्भ हुआ। परन्तु इससे भी आगे मार्क्स जैसे भौतिकवादी ने उद्योग एवं श्रम करने वाले शोषित वर्ग को समाज के साधन में बराबर हिस्सा मिले ताकि वह भी शोषक वर्ग की तरह अच्छी जिन्दगी बिता सके। ऐसी स्थिति में शोषक-शोषित वर्ग का संघर्ष भी उठ खड़ा हुआ जो प्रगति के लिए जरूरी समझा गया। आधुनिक पाश्चात्य भौतिकवाद इस प्रकार संघर्ष, क्रान्ति, विप्लव, विरोध का प्रतीक हो गया है। ऐसी स्थिति भारतीय भौतिकवाद की न तोथी, वह निष्क्रिय आराम-सुख का भोग सिखाता रहा जो संघर्ष में सम्भव नहीं हो सकता। प्रो० बी० एन० दास गुप्ता ने लिखा हैं कि “जो कुछ हमारे इन्द्रिय प्रत्यक्षण से परे है वह अनावश्यक और व्यर्थ की पूर्वधारणाएँ हैं। अतः ईश्वर पुनर्जन्म, मोक्ष, आत्मा, इत्यादि किसी काम के नहीं हैं।

शिक्षाशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!