शैक्षिक तकनीकी / Educational Technology

शैक्षिक तकनीकी के क्षेत्र में हुए कुछ महत्वपूर्ण अनुसंधान | शैक्षिक तकनकी के लिए कार्यरत कुछ महत्वपूर्ण रिसोर्स सेन्टर्स के नाम

शैक्षिक तकनीकी के क्षेत्र में हुए कुछ महत्वपूर्ण अनुसंधान | शैक्षिक तकनकी के लिए कार्यरत कुछ महत्वपूर्ण रिसोर्स सेन्टर्स के नाम | Some important research done in the field of educational technology in Hindi | Names of some important resource centers working for educational technology in Hindi

शैक्षिक तकनीकी के क्षेत्र में हुए कुछ महत्वपूर्ण अनुसंधान

शैक्षिक तकनीकी विषय का प्रादुर्भाव सन् 1900 से 1950 ई0 के मध्य औद्योगिक एवं तकनीकी विकास के फलस्वरूप हुआ था। यद्यपि इस समय तक इन तकनीकी विकासों का प्रभाव शिक्षा पर नाम मात्र को ही पड़ा था, किन्तु फिर भी यह समय शिक्षा के क्षेत्र में अपूर्व परिवर्तन लाने वाला कहा जा सकता है। सन् 1950 के पश्चात् शैक्षिक जगत् में वैचारिक एवं व्यावहारिक क्रान्ति के फलस्वरूप इस क्षेत्र में विदेशों में विशेष रूप से अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में हुए नवीन विकासों का उपयोग शिक्षा प्रक्रिया को सबल बनाने के लिये किया जाने लगा। वैज्ञानिकों शिक्षाशास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों के इन सम्मिलित प्रयासों के फलस्वरूप सन् 1960 के लगभग विशिष्ट शिक्षण सिद्धान्तों के निर्माण के साथ-साथ इस क्षेत्र में विशिष्टीकरण की प्रकृति विकसित होने लगी।

इस विषय के अन्तर्गत विभिन्न पक्षों पर बल दिए जाने के आधार पर व्यवहार तकनीकी शिक्षा तकनीकी शिक्षण तकनीकी, पाठ्यक्रम तकनीकी तथा प्रशासन तकनीकी आदि अनेक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होने लगी। इन प्रवृत्तियों के साथ-साथ अनेक प्रयोग एवं शोध विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ते गये। स्किनर, वांदूरा, आजारिन तथा लिंडर आदि के शोधों के आधार पर व्यवहार तकनीकी का विकास हुआ जिनसे कक्षा शिक्षण प्रभावित होने लगा। फलस्वरूप टीचिंग मशीन, अभिक्रमित अधिगम कान्टिजेंसी मैनेजमेण्ट तथा व्यावहारिक अभियान्त्रिकी आदि जैसे क्षेत्र शैक्षिक-शोध छात्रों के खुलने लगे।

सन् 1960-70 के मध्य इन क्षेत्रों में विदेशों में काफी शोध कार्य किए गये। अमरीका में पाठ्यक्रम निर्माण में शिक्षण तकनीकी पर विशेष बल देने के लिए (Association for Supervision and Curriculum Development) की स्थापना की गयी। सन् 1964 में पाठ्यक्रम निर्माण तथा शिक्षण सिद्धान्तों एवं तकनीकों में समावेशन स्थापित करने के लिए ए.एस.सी.सी. आयोग का गठन किया गया जिसने इस क्षेत्र को उन्नत बनाने के लिए सन् 1967 में अनेक सुझावों से युक्त अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। सन् 1965 के पश्चात् अन्य राष्ट्रों में भी इस दिशा में पर्याप्त कार्य किया गया। इसी समय में शिक्षण तकनीकी सम्बन्धी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन किया गया।

भारतवर्ष में शैक्षिक शिल्प के क्षेत्र में शोध कार्य बहुत कम हुए है। सन् 1939 से लेकर सन् 1963 के मध्य केवल 93 शोध अध्ययन टेलीविजन एवं अन्य श्रव्य-दृश्य सामग्री के क्षेत्र में किये गये। इन चौबीस वर्षों में विद्यालयों के शिक्षण विषयों में श्रव्य-दृश्य सामग्री से सम्बन्धित 34 अध्ययन, श्रव्य दृश्य सामग्री के इतिहास पर 16 अध्ययन, फिल्म तथा सिनेमा पर 13 अध्ययन, स्कूल ब्रॉडकांस्ट पर 9 अध्ययन परम्परागत तथा श्रव्य-दृश्य सामग्री युक्त नवीन शिक्षण विधियों पर 6 अध्ययन तथा अन्य प्रकार के 15 अध्ययन किये गये। सन् 1950 के दशक में काले (1953) ने “Learning and retention of English Russians Vocabulary under different! conditions of motion picture presentation.” पर अध्ययन किया। सन् 1955 में काले ने मौसलाइट के साथ मिलकर विदेशी भाषा में शब्दों की आवाज तथा चित्रों के उपयोग से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के शोध कार्य किये। इस दशक में किए गए शोध कार्य अधिकतर प्रारम्भिक (Exploratory) थे।

सन् 1960 व 1970 के दशकों में अधिकतर शोध एवं प्रयोग भारतवर्ष में अभिक्रमित, अध्ययन के क्षेत्र में किए गये। सन् 1965 में एन.सी.ई.आर.टी. नई दिल्ली के मनोविज्ञान विभाग ने इस दिशा में विभिन्न शोधकर्ताओं को कार्यशालाओं सेमीनारों तथा सिम्पोजियम एवं सीक्वेन्शल ट्रेनिंग पाठ्यक्रम आदि के माध्यम से आकर्षित करना प्रारम्भ कर दिया था। फलस्वरूप लगभग प्रत्येक विषय में अभिक्रमित अध्ययन प्रकाश में आने लगे। इस संस्थान ने स्वयं भी कुछ विषयों पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में अभिक्रमित अध्ययन सामग्री प्रकाशित की। ‘क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय’ अजमेर के गुप्ता ने गणित के सैट थ्योरीज’ आदि पर इस प्रकार की सामग्री निर्माण करने का प्रयास किया। एम.एस. यूनीर्सिटी बड़ौदा ने सर्वप्रथम एम.एड. स्तर पर शैक्षिक शिल्प विज्ञान एवं अभिक्रमित अध्ययन पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये।

माइक्रोटीचिंग के क्षेत्र में एन.सी.ई.आर.टी. के शिक्षण-प्रशिक्षण विभाग में कार्य किया गया। डॉ. सन्धू ने इससे सम्बन्धित शोध में उपयोगी पुस्तकों एवं शोध प्रपत्रों की सूची प्रकाशित की। डॉ. श्रीवास्तव, डॉ. एल.सी. सिंह आदि ने इस प्रणाली पर कई सेमीनारों की आयोजनाएँ की और उनका विवरण प्रकाशित कराया। डॉ. एल.पी. सिंह का कार्य भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय है। मेरठ विश्वविद्यालय के डॉ. आर.ए. शर्मा के निर्देशन में इस ओर काफी कार्य किया जा रहा है।

शैक्षिक तकनीकी में नये विकासों के फलस्वरूप नवीन प्रकार की पाठ योजनाओं के निर्माण का कार्य भी प्रारम्भ हो चुका है। इस क्षेत्र में मेरठ यूनीवर्सिटी के डॉ. आर.पी. भटनागर के निर्देशन में ओरियण्टेशन कोर्स भी आयोजित किये गये है। जिनमें विभिन्न शिक्षा विभागों के प्रवक्ताओं ने शिक्षण तकनीकियों का ज्ञान प्राप्त किया। परम्परागत प्रचलित विभिन्न पाठ योजनाओं के प्रत्येक पद का पूर्ण अध्ययन किया गया और यथासम्भव उनमें सुधार किये गये। इस प्रकार नयी शैक्षिक तकनीकी के विकास के आधार पर प्रत्येक पाठ योजना के लिये निम्नांकित चरण अपनाने की व्यवस्था की गयी-

  1. श्यामपट सम्बन्धी आवश्यक सूचनाएँ-पाठ का नाम आदि।
  2. छात्रों का पूर्ण ज्ञान।
  3. ज्ञानात्मक तर्कात्मक प्रयोगात्मक एवं रचनात्मक विशिष्ट उद्देश्य।
  4. पाठ्य-वस्तु।
  5. शिक्षण सहायक सामग्री।
  6. प्रत्याशित व्यावहारिक उद्देश्य।
  7. अधिगम अनुभव।
  8. वास्तविक अधिगम उपलब्धि।
  9. गृह-कार्य।
  10. सन्दर्भ पुस्तकें एवं पत्रिकाये।

शैक्षिक तकनीकी में अनुसंधानों पर आधारित नवीन प्रवृत्तियाँ- भारतवर्ष में शिक्षा के विभिन्न अंगों को सक्षम बनाने के लिये एन.सी.ई.आर.टी. नई दिल्ली की स्थापना भारत सरकार ने की थी। इस परिषद् के अनेक विभाग है। इस परिषद ने शैक्षिक शिल्पशास्त्री की महत्ता महसूस करते हुए, अभी हाल में “शैक्षिक तकनीकी केन्द्र” (Centre for Education Technology) नामक एक नया विभाग श्रीमती स्नेह शुक्ला के निर्देशन में प्रारम्भ किया गया। इस केन्द्र का प्रमुख ध्येय शैक्षिक तकनीकी के सिद्धान्तों एवं सामग्री का विकास‌करना तथा औपचारिक एवं अनौपचारिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में उपयोग करने के लिये पूर्ण प्रयत्न करना रखा गया। इस केंन्द्र से निम्नांकित क्षेत्रों में कार्य प्रारम्भ किया हैं-

  1. शैक्षिक तकनीकी का प्रयोग करते हुए एक अच्छी प्रणाली का निर्माण एवं विकास करना।
  2. शिक्षा तकनीकी में सूक्ष्म वस्तु एवं स्थूल वस्तु माध्यम पर शोध एवं विकास करना।
  3. शैक्षिक तकनीकी के क्षेत्र में विभिन्न प्रशिक्षणों द्वारा योग्यताओं एवं क्षमताओं का विकास करना।
  4. शैक्षिक तकनीकी के क्षेत्र में सामग्री एवं विभिन्न योजनाओं का मूल्यांकन करना।
  5. सूक्ष्म एवं स्थूल वस्तु माध्यम/प्रसार कार्य के लिये विभिन्न सामग्री एकत्रित कर कोष (Bank) बनाना तथा सामग्री का वितरण करना। इस उद्देश्यों की पूर्ति हेतु यह परिषद् अनेक माध्यमों से शिक्षण तकनीकी चेतना का विकास विद्यालयों महाविद्यालयों तथा प्रशिक्षण महाविद्यालयों में करने के लिये प्रयत्नशील है।

अपने शिक्षण को रोचक बनाने के लिये श्रव्य-दृश्य सामग्री का उपयोग करने का नारा आज है। बलवान होता जा रहा है। चार्ट, मॉडल, स्पेसिमैन, पदार्थ, स्लाइड, फिल्मस्ट्रिप आदि का प्रयोग शिक्षण में बढ़ने लगा है। बहुत-सी संस्थायें इन सामग्रियों का निर्माण के लिये कार्य कर रही है। एन०सी०ई०आर०टी० नई दिल्ली आदि के श्रव्य-दृश्य विभागों ने इन वस्तुओं के पुस्तकालय प्रारम्भ कर दिये हैं जिनके सदस्य बनकर विद्यालय अपने यहां विभिन्न शैक्षिक विषयों से सम्बन्धित फिल्में मँगाकर छात्रों को दिखा सकते हैं। बहुत से प्रशिक्षण महाविद्यालयों में भी श्रव्य-दृश्य विभागों की स्थापनाएँ की जा रही है।

यू.जी.सी. आदि संस्थायें इस क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान करने के लिये पर्याप्त अनुदान दे रही है। अनेक विद्यालय अपने-अपने शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए शैक्षिक तकनीकी के क्षेत्र में ओरियण्टेशन कोर्स इत्यादि प्रारम्भ कर रहे है। अब विभिन्न शोधकर्ताओं व शोध संस्थाओं ने व्यक्तित्व एवं संस्थागत स्तर पर शैक्षिक तकनीकी से सम्बन्धित शोध प्रयोजनाओं में रुचि लेना शुरू कर दिया है। इस विषय के प्रत्येक क्षेत्र में गहन अध्ययनार्थ विभिन्न सामग्री की रचना की ओर भी ध्यान दिया जाना प्रारम्भ हो गया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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