उपभोक्ता के व्यवहार का सिद्धान्त | संख्यावाचक उपागम | समसीमान्त उपयोगिता विश्लेषण | आनुपातिकता का नियम | सीमान्त उपयोगिता नियम की आलोचनाएँ | समसीमान्त उपयोगिता नियम का महत्व
उपभोक्ता के व्यवहार का सिद्धान्त | संख्यावाचक उपागम | समसीमान्त उपयोगिता विश्लेषण | आनुपातिकता का नियम | सीमान्त उपयोगिता नियम की आलोचनाएँ | समसीमान्त उपयोगिता नियम का महत्व
उपभोक्ता के व्यवहार का सिद्धान्त
(Theory of Consumer’s Behaviour)
प्रत्येक विवेकपूर्ण उपभोक्ता अपनी आय तथा विभिन्न वस्तुओं के बाजार मूल्य के साथ, इस प्रकार अपनी आय को व्यय करने का प्रयास करता है जिससे उसे अधिकतम सम्भावित सन्तुष्टि या उपयोगिता प्राप्त हो सके। यह अधिकतम सन्तुष्टि की स्थिति ही उपभोक्ता की संस्थिति होगी क्योंकि इस स्थिति की प्राप्ति के बाद उपभोक्ता अपने व्यवहार में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं करना चाहेगा। वस्तु के उपयोग से प्राप्त उपयोगिता पा सन्तुष्टि को अधिकतम करना ही उपभोक्ता के व्यवहार का निर्देशक सिद्धान्त है। अधिकतम सन्तुष्टि स्तर प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उपभोक्ता अपनी आय से क्रय की जाने वाली वस्तुओं के विभिन संयोगों से प्राप्त होने वाली उपयोगिता की तुलना कर सके। उपभोक्ता के व्यवहार का सिद्धान्त मुख्यतः इसी समस्या से सम्बन्धित है। उपयोगिता की तुलना की समस्या के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो दृष्टिकोण मिलते हैं- उपयोगिता के संख्यात्मक उपागम (Cardinal approach) तथा क्रमवाचक उपागम (Ordinal appronch)। मार्शल का समसीमान्त उपयोगिता सिद्धान्त (Law of Equi-Marginal Utility) उपयोगिता के संख्यात्मक माप पर आधारित है जबकि उपयोगिता के क्रमवाचक माप पर आधारित प्रमुख रूप से दो सिद्धान्त मिलते हैं-हिक्स का ‘अनधिमान वक्र दृष्टिकोण’ तथा सेम्युलसन का “व्यक्त अधिमान दृष्टिकोण”। सर्वप्रथम हम “संख्यात्मक” उपागम का अध्ययन करेंगे।
संख्यावाचक उपागम
(Cardinal approach)
समसीमान्त उपयोगिता विश्लेषण एवं उपभोक्ता की संस्थिति
(Law of Equi-Marginal Utility and Consumer’s Equilibrium)-
सम-सीमान्त उपयोगिता का नियम उपभोग का एक महत्त्वपूर्ण एवं आधार-भूत नियम है। यह उपयोगिता हास्य नियम का विस्तार है। हम जानते हैं कि मनुष्य की आवश्यकताएँ असीमित होती हैं और उनकी पूर्ति के साधन सीमित होते हैं। एक विवेकशील उपभोक्ता का उद्देश्य अपने सीमित साधनों से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करना होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वह सम-सीमान्त उपयोगिता नियम का पालन करता है। इस नियम के अनुसार उपभोक्ता को अपनी सीमित आय विभिन्न वस्तुओं पर इस प्रकार व्यय करनी चाहिये कि प्रत्येक वस्तु पर मुद्रा की अन्तिम इकाई व्यय करने से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता बराबर या लगभग बराबर हो। ऐसा करने पर ही अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त की जा सकती है।
एच० एन० गोसेन (H. N.Gossen) को इस नियम का जन्मदाता माना जाता है। इसीलिए इसे ‘गोसेन का उपभोग का द्वितीय नियम’ भी कहते हैं। गोसेन के ही शब्दों में, “यदि समस्त आवश्यकताओं की तृप्ति बिन्दु तक सन्तुष्ट करना असम्भव हो तो अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न आवश्यकताओं की सन्तुष्टि को उसी बिन्दु पर रोक दिया जाये, जहाँ उनकी तीव्रता समान हो चुकी है।
इस नियम की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नांकित हैं-
(1) मार्शल के शब्दों “यदि किसी व्यक्ति के पास एक वस्तु है जिसे वह अनेक प्रयोगों में लगा सकता है तो वह उस वस्तु को उन प्रयोगों में इस प्रकार से बॉटेगा कि प्रत्येक प्रयोग से मिलने वाली सीमान्त उपयोगिता एक समान हो।”
(2) प्रो. जे.के. मेहता के शब्दों में, “यदि एक दी हुई समय अवधि में एक वस्तु अनेक आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है तो उसकी एक दी हुई मात्रा से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करने के लिए इसकी मात्रा को विभिन्न आवश्यकताओं के बीच इस प्रकार बाँटना चाहिए कि उस निश्चित अवधि में इसकी सीमान्त उपयोगिता लगभग समान हो जाये।
(3) लिप्से (Lipsey) के शब्दों में, “एक उपभोक्ता, जो अपनी सन्तुष्टि अधिकतम करना चाहता है, अपनी आय अलग-अलग वस्तुओं पर इस प्रकार व्यय करेगा कि प्रत्येक वस्तु पर खर्च होने वाले रुपये की अन्तिम इकाई से बराबर की उपयोगिता प्राप्त हो।”
(4) हिक्स के शब्दों में, “जब प्रत्येक अवस्था में व्यय की सीमान्त इकाइयों से उपयोगिता में समान वृद्धि प्राप्त होती है, तो उपयोगिता अधिकतम होगी।”
नियम का आधार- इस निपम के तीन मुख्य आधार है-
(1) मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त एवं असीमित होती हैं।
(2) मनुष्य के पास इन्हें पूरा करने के लिए साधन सीमित होते हैं।
(3) प्रत्येक मनुष्य अधिकतम सन्तोष प्राप्त करना चाहता है।
नियम के विभिन्न नाम-
(1) प्रतिस्थापन का नियम (Law of Substitution),
(2) उदासीनता का नियम (Law of Indifference),
(3) आनुपातिकता का नियम (Law of Proportionality).
(4) मितव्ययिता का नियम (Law of Economy)|
नियम की मान्यताएं- यह नियम निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-
(1) उपयोगिता को मुद्रा रूपी पैमाने द्वारा मापा जा सकता है अर्थात् उपयोगिता का गणना वाचक माप सम्भव है।
(2) उपभोक्ता की आय सीमित होती है एवं स्थिर रहती है।
(3) उपयोगिता हास्य नियम क्रियाशील होता है।
(4) उपभोक्ता का व्यवहार विवेकपूर्ण होता है।
(5) मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता स्थिर रहती है।
(6) वस्तुएँ विभाज्य हैं।
(7) बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्या पाई जाती है।
(8) उपभोक्ता की आय, आदत, स्वभाव व परम्परा में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
(9) वस्तुएं एक-दूसरे से पूर्ण स्वतन्त्र होती हैं।
(10) उपभोक्ताओं को बाजार दशाओं का ज्ञान होता है।
नियम की आधुनिक व्याख्या : आनुपातिकता का नियम
(Modern Interpretation of the Law : Law of Proportionality)
परम्परागत अर्थशास्त्रियों के अनुसार एक उपभोक्ता अपनी अधिकतम सन्तुष्टि के लिए सभी वस्तुओं की सीमान्त उपयोगिताओं को समान करता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करने के लिए उसे इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है। कि विभिन्न वस्तुओं की सीमान्त उपयोगिता उनकी कीमतों के अनुपात में हो। इस प्रकार इन अर्थशास्त्रियों ने ‘सीमान्त उपयोगिता कीमत अनुपात’ को समान बनाए रखने पर जोर दिया है। इस विचारधारा के अनुसार एक विवेकशील उपभोक्ता साम्य में बने रहने के लिए अपने व्यप को दो वस्तुओं के बीच इस प्रकार बाँटेगा कि उसे X वस्तु पर किये गये व्यय की सीमान्त उपयोगिता तथा कीमत का अनुपात Y वस्तु के व्यय की सीमान्त उपयोगिता तथा कीमत के अनुपात के बराबर हो जाये। लिप्से के शब्दों में, “उपयोगिता को अधिकतम करने वाला परिवार अपने व्यय को इस प्रकार सन्तुलित करेगा कि उपभोग की जाने वाली प्रत्येक वस्तु की अन्तिम इकाई से मिलने वाली उपयोगिताएँ, उनके मूल्यों के अनुपात में बनी रहें।”
संक्षेप में, एक उपभोक्ता के सन्तुलन का समीकरण इस प्रकार होगा-
वस्तु की सीमान्त उपयोगिता/X वस्तु की कीमत = Y वस्तु की सीमान्त उपयोगिता/Y वस्तु की कीमत
Z वस्तु की सीमान्त उपयोगिता/Z वस्तु की कीमत
अथवा MUx/ Px = MUy/PY = MUz/Pz-
अब यदि MUX/Px और MUY/PY
बराबर नहीं हैं अर्थात् Mux/Px > MUy/Py है तो
उपभोक्ता Y के स्थान पर X वस्तु का उपभोग करेगा । फलस्वरूप वस्तु X की सीमान्त उपयोगिता गिर जाएगी और वस्तु Y की सीमान्त उपयोगिता बढ़ जाएगी। वह वस्तु Y का प्रतिस्थापन वस्तु X से तब तक करता जाएगा जब तक कि और MUx/Px और MUy/Py बराबर नहीं हो जाते । अतः उपभोक्ता तभी सन्तुलन में होगा जब,
MUX/Px = MUy/Py
सीमान्त उपयोगिता नियम की आलोचनाएँ अथवा सीमाएँ
(Criticism or Limitations of the Law)
सम सीमान्त उपयोगिता नियम की मुख्य आलोचनाएँ निम्नांकित हैं-
(1) उपयोगिता की माप सम्भव नहीं है- यह नियम उपयोगिता की गणनावाचक माप पर आधारित है। परन्तु आलोचकों के अनुसार, इसकी गणनावाचक माप सम्भव नहीं है क्योंकि, उपयोगिता एक मनोवैज्ञानिक धारणा है और यह व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर करती है।
(2) मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता स्थिर नहीं रहती- यह नियम इस मान्यता पर आधारित है कि मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता स्थिर रहती है। इसके विपरीत आलोचकों का मत है कि मुद्रा की मात्रा और मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन हो जाने से मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता में भी परिवर्तन हो जाता है।
(3) वस्तुएँ स्वतन्त्र नहीं होतीं– यह नियम इस मान्यता पर आधारित है कि वस्तुएँ एक- दूसरी से स्वतन्त्र होती है और इसलिये इनसे प्राप्त उपयोगिताएँ भी स्वतन्त्र होती हैं। वास्तविक जीवन में वस्तुएँ स्वतन्त्र नहीं होती। वे या तो एक दूसरे की निकट स्थानापन्न होती हैं या एक दूसरे की पूरक होती है। इसके कारण इनकी उपयोगिताएँ भी परस्पर सम्बन्धित होती हैं और एक दूसरी पर निर्भर करती है।
(4) वस्तुएँ विभाज्य नहीं होती- यह नियम इस मान्यता पर आधारित है कि प्रयोग की जाने वाली वस्तु को छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित किया जा सकता है किन्तु अनेक वस्तुएँ ऐसी है जिन्हें छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित नहीं किया जा सकता जैसे टी० बी०, फ्रिज आदि। अतः इनकी सीमान्त उपयोगिता की तुलना अन्य वस्तुओं की सीमान्त उपयोगिता से नहीं की जा सकती।
(5) अनिश्चित बजट अवधि- बोल्डिंग के अनुसार, यह नियम एक निश्चित बजट अवधि में ही लागू हो सकता है, जबकि सामान्य उपभोक्ता की बजट अवधि निश्चित नहीं होती। फिर अनेक वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिन्हें एक बजट अवधि में खरीदा जाता है किन्तु जिनका उपयोग अगली बजट अवधियों में किया जाता है जैसे पंखा, कूलर, रेडियो, फर्नीचर आदि ।
(6) वस्तुओं की कीमत में परिवर्तन- व्यावहारिक जीवन में वस्तुओं की कीमतों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। कीमतों में परिवर्तन होने से उनकी सीमान्त उपयोगिताओं में भी परिवर्तन हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह नियम लागू नहीं होता।
(7) उपभोक्ताओं का अविवेकपूर्ण व्यवहार- यह नियम इस मान्यता पर आधारित है कि उपभोक्ता का व्यवहार विवेकपूर्ण होता है परन्तु व्यावहारिक जीवन में उपभोक्ता वस्तुओं का क्रय करते समय हिसाबी प्रकृति का नहीं होता।
(8) पूरक वस्तुओं की समस्या- पूरक वस्तुएँ वे वस्तुएँ है जिनका प्रयोग संयुक्त रूप में किया जाता है जैसे पेन व स्याही, कार व पेट्रोल आदि । इन वस्तुओं को एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग नहीं किया जा सकता | अतः पूरक वस्तुओं के सम्बन्ध में यह नियम लागू नहीं होता।
(9) वस्तुओं का उपलब्ध न होना- कभी-कभी बाजार में अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी वस्तुएँ उपलब्ध नहीं हो पातीं। ऐसी स्थिति में उपभोक्ता को विवश होकर कम उपयोगी वस्तुओं से काम चलाना पड़ता है।
(10) उपभोक्ता की अज्ञानता व आलस्य- उपभोक्ता को बाजार दशाओं के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी नहीं होती। अत: वह अनेक बार महँगी व घटिया वस्तुओं को खरीद लेता है। उधार खरीदने पर उसे प्रचलित मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदना पड़ता है।
समसीमान्त उपयोगिता नियम का महत्व, क्षेत्र व व्यवहार
(Application, Scope and Importance of the Law)
समसीमान्त उपयोगिता नियम अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण नियम है। प्रो० रोबिन्स ने इसे ‘अर्थशास्त्र का नियम’ कहा है। इस नियम के महत्त्व के बारे में प्रो० मार्शल ने लिखा है, “यह नियम सर्वव्यापी है और आर्थिक क्रिया के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है।” अर्यशास्त्र के विभिन्न क्षेत्रों में इस नियम का महत्त्व निम्न प्रकार है-
(1) उपभोग के क्षेत्र में- उपभोक्ता की आवश्यकताएँ असीमित होती हैं और उनकी पूर्ति के साधन सीमित होते हैं। सीमित साधनों से उपभोक्ता की सभी आवश्यकताएँ पूरी नहीं की जा सकतीं। अतः उसके सामने यह समस्या रहती है कि वह कौन-सी वस्तुएँ कितनी मात्रा में खरीदे। यह नियम उसकी समस्या का समाधान करता है। यह नियम बताता है कि विभिन्न वस्तुओं पर मुद्रा इस प्रकार व्यय की जानी चाहिए कि प्रत्येक वस्तु पर मुद्रा की अन्तिम इकाई व्यय करने से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता बराबर हो। इससे उपभोक्ता को अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त होगी।
(2) उत्पादन के क्षेत्र में- प्रत्येक उत्पादक का उद्देश्य अपने लाभ को अधिकतम करना होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उत्पादक अपने सीमित साधनों का उत्पादन क्रिया में इस प्रकार से प्रयोग करता है कि सभी साधनों की सीमान्त उत्पादकता बराबर हो जाए। इस दृष्टि से वह साधनों का उस समय तक परस्पर प्रतिस्थापन करता रहेगा जब तक कि सभी साधनों की सीमान्त उत्पादकता बराबर न हो। उत्पत्ति के साधनों का अनुकूलतम संयोग उस बिन्दु पर प्राप्त होगा जहाँ उत्पत्ति के साधनों की सीमान्त उत्पादकता उनकी कीमतों के अनुपात के बराबर होगी अर्थात्-
MPA/PA = MPB/PB = MPC/PC
मार्शल के अनुसार, “समसीमान्त उपयोगिता नियम का उपभोग की तरह उत्पादन के क्षेत्र में भी प्रयोग किया जाता है।”
(3) विनिमय के क्षेत्र में- यह नियम वस्तु विनिमय का आधार है। विनिमय करते समय प्रत्येक व्यक्ति कम उपयोगी वस्तु को अधिक उपयोगी वस्तु के साथ बदलता है। यह विनिमय तब तक होता रहता है जब तक कि दोनों वस्तुओं की सीमान्त उपयोगिता समान नहीं हो जाती। क्रय-विक्रय करते समय भी हम वस्तु से मिलने वाली उपयोगिता और त्यागी गई मुद्रा की उपयोगिता को सदैव बराबर करने का प्रयास करते हैं।
(4) वितरण के क्षेत्र में- वितरण के क्षेत्र में इस नियम का प्रयोग उत्पत्ति के साधनों को दिये जाने वाले पुरस्कार निर्धारण के लिए किया जाता है। प्रत्येक साधन का प्रतिफल उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होना चाहिए। यदि किसी साधन का पुरस्कार उसकी सीमान्त उत्पादकता से अधिक है। उत्पादक उस साधन का अन्य साधनों के साथ प्रतिस्थापन करेगा। ऐसा वह तब तक करता जाएगा जब तक प्रत्येक साधन का प्रतिफल उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर नहीं हो जाता।
(5) राजस्व के क्षेत्र में- सरकार अपने आय-व्यय के निर्धारण में इस नियम का सहारा लेती है। कर लगाते समय सरकार इस बात का ध्यान रखती है कि प्रत्येक करदाता द्वारा सीमान्त त्याग लगभग बराबर हो क्योंकि ऐसा करने पर ही जनता पर करारोपण का भार न्यूनतम होगा । करों से प्राप्त आय को सरकार विभिन्न प्रकार के विकास, निर्माण व कल्याण कार्यों पर व्यय करती है। व्यय करते समय सरकार यह देखती है कि विभिन्न मदों पर किये गये व्यय से प्राप्त होनी वाली उपयोगिता (लाभ) समान रहे । ऐसी स्थिति में ही सामाजिक लाभ अधिकतम होगा।
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