मुद्रा पूर्ति की अवधारणा

मुद्रा पूर्ति की अवधारणा | मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा का परम्परागत रूप | वित्तीय अन्वेषण तथा मुद्रा की पूर्ति के नये दृष्टिकोण | मुद्रा निर्गमित करने वाली संस्थायें

मुद्रा पूर्ति की अवधारणा | मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा का परम्परागत रूप | वित्तीय अन्वेषण तथा मुद्रा की पूर्ति के नये दृष्टिकोण | मुद्रा निर्गमित करने वाली संस्थायें

मुद्रा पूर्ति की अवधारणा

 एक विकासशील देश का प्रमुख उद्देश्य ‘आर्थिक स्थिरता के साथ आर्थिक विकास करना है पर आर्थिक स्थिरता तभी सम्भव होगी जबकि अर्थव्यवस्था में विकास की संवृद्धिदर (Rate of growth) के सन्दर्भ में मुद्रा की पूर्ति को समुचित रूप में व्यवस्थित किया जाय। कारण स्पष्ट है, यदि उत्पादन की वृद्धि के साथ-साथ मुद्रा की पूर्ति नहीं बढ़े तो मूल्य-स्तर में कमी फलस्वरूप मन्दी की स्थिति दृष्टिगोचर होगी पर यदि उत्पादन की वृद्धि से मुद्रा की पूर्ति अधिक दर से बढ़े तो मुद्रा- स्फीति या मूल्य-स्तर में वृद्धि की स्थिति दृष्टिगोचर होगी। आर्थिक स्थिरता की स्थिति तभी दृष्टिगोचर होगी जबकि मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि उसी दर पर हो जिस दर पर अर्थव्यवस्था विकसित हो रही हो। इसलिए यह आवश्यक है कि हम मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा पर विचार कर लें जिससे यह जाना जा सके कि मुद्रा की पूर्ति जनता में कितनी है।

मुद्रा की एक विलक्षणता है जो इसे अन्य सम्पत्तियों से अलग कर देती है और वह है तरलता (Liquidity) मुद्रा एक तरल सम्पत्ति है। इसके प्रमुख रूप से दो कारण हैं-(क) मुद्रा ही एक ऐसी सम्पत्ति है जिसे प्रत्यक्ष रूप से भुगतान के माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। अन्य सम्पत्तियों को इस रूप में नहीं प्रयोग में लाया जा सकता है, उनको पहले मुद्रा में परिवर्तित करना आवश्यक होगा। उन्हें इस प्रकार परिवर्तित करने मे कुछ न कुछ हानि उठानी पड़ेगी। (ख) मुद्रा के नामांकित (nominal) मूल्य में कोई परिवर्तन नहीं होता है। इस प्रकार वे सभी सम्पत्तियाँ जो मुद्रा के रूप के नजदीक आयेंगी वे सभी मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित की जा सकेंगी।

(क) मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा का परम्परागत रूप-

(i) परम्परागत रूप में दो सम्पत्तियों को पूर्णतया तरल रूप में स्वीकार किया गया और इसलिए परम्परागत रूप में इन्हें मुद्रा की पूर्ति के अवयव के रूप में स्वीकार किया गया-जनता के पास करेंसी (Cp) तथा बैंक जमा Dd मुद्रा के स्टाक के इस माप को M1 कहा गया। इस प्रकार M1= (Cp+Dd)

सिक्के तथा कागजी मुद्रा को करेंसी (Cp) में परिभाषित किया जाता है। करेंसी का निर्गमन सरकार तथा देश के केन्द्रीय बैंक द्वारा किया जाता हैं। माँग जमा (Dd) ऐसे बैंक जमा हैं जिनको जमाकर्ता द्वारा चेक से हमेशा निकाला जा सकता है। भारत में इन्हें चालू जमा (Current deposit) कहा जाता है। मुद्रा की पूर्ति का M1 दृष्टिकोण अत्यन्त ही संकुचित दृष्टिकोण है।

(ii) व्यापारिक बैंक चालू जमा के अतिरिक्त दो अन्य प्रकार के जमा भी स्वीकार करते हैं सावधि जमा (Time Deposit) Dad तथा बचत बैंक जमा (Saving Bank Deposit)Ds बचत बैंक खातों पर चेक सुविधा नहीं मिलने के कारण (जैसी चालू खाते पर मिलती है) तथा सावधि जमा पर निश्चित अवधि के पहले भुगतान लेने पर दण्डित होने के कारण बचत बैंक जमा तथा सावधि जमा दोनों ही चालू जमा से कम तरल माने जाते हैं, इसलिए इन्हें मुद्रा की पूर्ति के अवयव के रूप में नहीं रखा गया। बचत बैंक खाते पर चेक सुविधा उपलब्ध हो जाने के कारण तथा सावधि जमा प्रमाण पत्र को ऋण लेने के लिए प्रत्याभूति (Collateral) के रूप में स्वीकार किये जाने के कारण तथा चूँकि अब ये जमा भी आंशिक रूप से माँग जमा के समकक्ष आते हैं, इसलिए मुद्रा की पूर्ति की विस्तृत धारणा में इन्हें भी सम्मिलित किया जाता है जिसे हम M2 कहते है। M2= M1+बचत बैंक जमा + व्यापारिक बैंकों के साथ सावधि जमा या M2M1 + Ds+D1

(iii) मुद्रा की पूर्ति के और विस्तृत दृष्टिकोण में हम न केवल व्यापारिक बैकों द्वारा स्वीकार किये गये जमा को सम्मिलित करते हैं बल्कि गैर बैकिंग संस्थाओं (Non Banking financial Institutions) द्वारा स्वीकार किए गये जमा को भी सम्मिलित करते हैं इस प्रकार M3= M1 – गैर बैंकिग वित्तीय संस्थाओं के बचत जमा तथा समय जमा। मुद्रा की पूर्ति की और विस्तृत धारणायें भी हो सकती हैं। यू.एस.ए. में M7 की धारणा के लिए प्रस्ताव था, इंग्लैण्ड में M1 तथा M3 की धारणा प्रयुक्त होती है। भारत में M1 M2तथा M3 की धारणायें प्रयुक्त हैं। इस प्रकार मुद्रा की पूर्ति (Ms)= M1 या M2 या M3 या M4

(ख) वित्तीय अन्वेषण तथा मुद्रा की पूर्ति के नये दृष्टिकोण-

1970 के आस- पास यू.एस.ए में अनेक बैंकिंग अन्वेषण लाये गये जिनके परिणामस्वरूप मुद्रा की पूर्ति का परम्परागत रूप ठीक नहीं रह गया है। इनमें हम निम्नांकित को भी सम्मिलित कर सकते हैं।

(i) व्यापारिक साख (Trade Credit)- आर. डब्ल्यू. क्लॉवर ने यह मत व्यक्त किया की मुद्रा को भुगतान के माध्यम के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए। इसलिए विकसित देशों विशेष रूप से यू.एस.ए. तथा यू.के में मुद्रा के रूप में M, के साथ व्यापारिक साख को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। व्यापारिक साख के अन्तर्गत क्रेडिट कार्ड, अधिविकर्ष (Over Draft) विभागीय भण्डार साख, टेवलर्स चेक, कामर्शियल पेपर आदि आते हैं। क्लॉवर यह मत व्यक्त करते हैं कि सावधि जमा को भुगतान के माध्यम के रूप में नहीं प्रयोग में लाया जा सकता, इसलिए इसे मुद्रा की पूर्ति में नहीं सम्मिलित किया जाना चाहिए जबकि व्यापारिक साख के विभिन्न रूप भुगतान के माध्यम के रूप में बाजारों में प्रयुक्त होते हैं। इसलिए इन्हें मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित किया जाना चाहिए। हैरी जॉनसन (Harry Johnson) का यह मत है कि व्यापारिक साख को मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित किया जा सकता है यदि हमारा उद्देश्य अल्पकाल में यह जानना हो कि वस्तुओं तथा सेवाओं की कितनी माँग लोग कर सकते हैं।

(ii) समीपस्थ मुद्रा (Near Money)- करेंसी, माँग जमा, समय जमा तथा बचत जमा ही पूँजी सम्पत्तियाँ नहीं है जिनको लोग अपने सम्पत्ति ढाँचे में रखते हैं। (कुछ अन्य सम्पत्तियाँ भी हैं जो बहुत अधिक तरल हैं और इनको समीपस्थ मुद्रा कहते हैं जैसे 90 या 120 दिनों की सरकारी ट्रेजरी बिल्स

(ग) मौद्रिक दायित्व के रूप में मुद्रा की पूर्ति की व्याख्या (Money as a Financial Liability) जो भी संस्था मुद्रा निर्गमित या सृजित करती है, निर्गमित मुद्रा उसकी मौद्रिक दायित्व (Monetary liability) होती है। यदि आप भारत का उदाहरण लें तो आप यह कह सकते हैं कि चलन में प्रचलित सिक्का तथा एक रूपये की पत्र-मुद्रा भारत सरकार की मौद्रिक दायित्व है, अन्य पत्र मुद्रायें एक तरह से इनको निर्गमित करने वाली संस्था रिजर्व बैंक के मौद्रिक दायित्व हैं जबकि व्यापारिक बैंकों द्वारा सृजित साख मुद्रायें उस बैंक के मौद्रिक दायित्व के अन्तर्गत आयेंगी जिसने उनका सृजन किया है।

(सिक्के, पत्र तथा चेक से निकालने योग्य बैंक जमा) “ऋण-मुद्रा’ हैं वे अपने निर्गमित करने वालों के विरूद्ध ऋण-दायित्व हैं।”

मुद्रा निर्गमित करने वाली संस्थायें-

सरकार, केन्द्रीय बैंक (रिजर्व बैंक) तथा व्यापारिक बैंक अपनी सम्पत्तियों को क्रय करते समय या उनमें वृद्धि लाते समय मौद्रिक दायित्वों का सृजन तथा निर्गमन करती हैं तथा जब वे अपनी संपत्तियों को बेचती हैं या उनमें कमी लाती हैं तो वे मौद्रिक दायित्व को समाप्त करती हैं या उसमें कमी लाती हैं। चूँकि मुद्रा निर्गमित करने वाली संस्थाओं का कुल मौद्रिक दायित्व ही मुद्रा की पूर्ति प्रदर्शित करेगा। (जैसा हम लोगों ने देखा) इसलिए इन संस्थाओं द्वारा सम्पत्ति के वृद्धि के समय मौद्रिक दायित्व में वृद्धि तथा सम्पत्तियों में कमी लाते समय मौद्रिक दायित्व में कमी का अन्तर ही मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि प्रदर्शित करेगा। इस प्रकार यदि इन संस्थाओं के व्यवहार के कारण मौद्रिक दायित्व में वृद्धि M

हो तथा मौद्रिक दायित्व में कमी AM1 हो तो मौद्रिक दायित्व में वृद्धि AM AM1 मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि प्रदर्शित करेगा। यदि AM1 की मात्रा AM से अधिक हो तो AM1 – AM मौद्रिक दायित्व में कमी या मुद्रा की पूर्ति मे कमी प्रदर्शित करेगा।

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