जलीय चक्र पर मानव का प्रभाव | Man’s Influence on Hydrological Cycle in Hindi
जलीय चक्र पर मानव का प्रभाव | Man’s Influence on Hydrological Cycle in Hindi
जलीय चक्र पर मानव का प्रभाव (Man’s Influence on Hydrological Cycle)
जलीय चक्र पर मानव का प्रभाव- सम्पूर्ण पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक तत्वों की संरचना एवं कार्यशीलता में जलीय चक्र की अहम भूमिका है। जैविक समुदाय के अन्तर्गत मानव एक विशिष्ट प्राणी है। वह एक भौगोलिक अभिकर्ता है। गतिशील पृथ्वी एवं सक्रिय मानव के बीच स्थापित सहसम्बन्ध परिवर्तनशील है। मानव अपने विविध क्रियाकलापों के लिए जलीय चक्र एवं सकल पारितन्त्र पर आश्रित है। अपने चरम विकास की लालसा से उसने विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में आशातीत प्रगति हासिल की है। सुदूर अन्तरिक्ष की परिधि में उसने अपने पदचिन्हों की छाप छोड़ी है। पर्यावरण की एकाग्रता की अनदेखी कर उसने अतिक्रमण की भावना एवं विकास की अतिशयता से सम्पूर्ण परिवेश की साम्यावस्था को विक्षुब्ध कर दिया है। उसके बहुमुखी प्रयासों से जल चक्र की निरन्तरता भी बाधित हुई है। पर्यावरण में गुणात्मक ह्रास की जिम्मेदारी अकेले मानव पर है। विकास के लिए उसने इतना अधिक विनाश कर डाला है कि प्रदूषण की झलक सर्वत्र प्रलय का सन्देश दे रही है। यह तो उसकी विकृति सूझबूझ ही कही जायेगी क्योंकि उसने अपने जीवन की अमूल्य निधि जल को नाना प्रकार से विषाक्त किया है। मानव ने जलीय चक्र को अपने विश्वव्यापी क्रियाकलापों द्वारा
विभिन्न रूपों में प्रभावित किया है – कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव इस प्रकार है –
(1) कृत्रिम वर्षण का प्रभाव :
मानव ने मेघ बीजन प्रक्रिया (Cloud Seeding Process) द्वारा कृत्रिम वर्षण करके जलीय चक्र को प्रभावित किया है। कृत्रिम वर्षण का प्रयास सर्वप्रथम 1946 में शेफर एवं लैगम्यूर (Schaefer and Langmuir) नामक दो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने किया था । इन वैज्ञानिकों ने वायुमण्डल में 4300 मीटर ऊँचाई पर वायुयान द्वारा ठोस कार्बन डाई आक्साइड तथा शुष्क वर्फ के कणों को छिड़ककर अति शीतलित मेघों का कृत्रिम बीजारोपण करके वर्षा करायी।
इस दौरान अमेरिका में कुत्रिम वर्षण के कई सफल प्रयास किये गये। भारत में उत्तरप्रदेश प्रान्त के मिर्जापुर जनपद में रिहन्द बाँध क्षेत्र के अन्न्तगत कृत्रिम वर्षण का प्रयास किया जा चुका है। कृत्रिम वर्षण से मानव ने वर्षा की मात्रा में अभिवृद्धि की है तथा जलीय चक्र को प्रभावित किया है।
(2) वन विनाश एवं वनारोपण का प्रभाव :
वन विनाश एवं वनारोपण का जलीय चक्र पर ऋणात्मक एवं धनात्मक प्रभाव पड़ता है। मानव द्वारा अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किये गये वन विनाश से विश्वस्तरीय वर्षण में कमी तथा धरातलीय अपवाह में वृद्धि होती है। वर्षण की कमी से मरुस्थलीकरण का प्रकोप बढ़ता है जबकि अपवाह बृद्धि से जलग्रहण क्षेत्रों के सहारे बाढ़ की सम्भावनाएं होती है। वनारोपण के द्वारा वाष्पोत्सर्जन में वृद्धि, जल अपवाह में हास, भूमिगत जलस्तर में वृद्धि एवं सरिता अपवाह में परिवर्तन होता है।
(3) सिंचाई का प्रभाव :
मानव ने हरित क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में सिंचाई के साधनों में आशातीत वृद्धि की है। बढ़ते हुए सिंचाई के साधनों के कारण वास्तविक वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन एवं स्त्रावक्षति में बृद्धि हो जाती है। कुआँ, ट्यूबवेल, पम्पसेट जैसे सिंचाई के साधनों द्वारा सिंचाई के लिए भारी मात्रा में भूमिगत जल का विदोहन होता है जिसका प्रभाव विश्वस्तरीय जलीय चक्र पर पड़ता है।
(4) बाँधो, जलाशयों एवं नदी परियोजनाओओं के निर्माण का प्रभाव :
मानव ने नदी जल मार्गो के सहारे बाँधो एवं जलाशयों का निर्माण कर बहुउद्देशीय परियोजनाओं का विकास किया है। जलावरोध के कारण स्थानीय भौमजलस्तर एवं वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन क्रिया में तीव्रता से वृद्धि हुई है।
(5) सड़क एवं भवन निर्माण का प्रभाव :
औद्योगिक विकास एवं बढ़ते हुए नगरीकरण के कारण भूमि संसाधन के बहुत बड़े भाग पर सड़कों एवं भवनों का निर्माण हुआ है। सड़कों एवं भवनों के निर्माण से वाष्पीकरण का ह्रास होता है और जलीय चक्र बड़े पैमाने पर बाधित होता है।
(6) कृषि का प्रभाव :
मानव ने कृषि संसाधनों का तीवरगति से विकास किया है। धरातल पर विभिन्न फसल प्रतिरूपों एवं फसलचक्कों के कारण जलीय चक्र प्रभावित होता है क्योंकि शस्यीकरण एवं वानस्पतिक आवरण से जल का अधिक संचयन होता है तथा पौधों द्वारा जलावशोषण क्रिया के फलस्वरूप वाष्पोत्सर्जन की मात्रा में वृद्धि होती है।
(7) भूमि उपयोग में परिवर्तन का प्रभाव :
मानव ने विज्ञान एवं तकनीकी विकास की होड़ में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, व्यापारिक, परिवहन आदि क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन करके धरातल के ऊपरी आवरण को कृत्रिम बना दिया है। आवश्यकतानुसार भूमि उपयोग में परिवर्तन किया है जिसके कारण पृथ्वी की नैसर्गिक सुषमा का विलोप हुआ है। सीमित स्वतन्त्र भौतिक परिवेश के कारण जलीय चक्र प्रभावित हुआ है।
(৪) औद्योगीकरण एवं तकनीकी विकास का प्रभाव :
बढ़ता हुआ औद्योगीकरण एवं तकनीकी विकास जलीय चक्र के सन्तुलन में बाधक है। औद्योगीकरण के प्रभावश के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाई आक्साइड गैस की वृद्धि हो रही है तथा ओजोन परत के क्षय का खतरा बढ़ता जा रहा है। कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन एवं क्लोरो-फ्लोरो कार्बन की वृद्धि के कारण वायुमण्डल में आकस्मिक ताप वृद्धि से जलीय चक्र पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
(9) अन्तरिक्ष अभियान का प्रभाव :
मानव द्वारा अन्तरिक्ष अभियान का प्रभाव जलीय चक्र पर विशेष रूप से देखा जा सकता है। वायुमण्डल में लगभग 22 किमी० की ऊँचाई पर ध्वनि की दुगुनी रफ्तार से उड़ने वाले सुपरसॉनिक जेट विमान द्वारा निस्सृत नाइट्रोजन आक्साइड से ओजोन मण्डल में ओजोन गैस का हास होता है। ओजोन गैस सूर्य की पराबैगनी किरणों को छानकर धरातल पर भेजती है। यदि ये किरणें धरातल पर पहुँच जाती तो पृथ्वी के धरातल पर तापमान इतना अधिक हो जाता कि किसी भी प्रकार के जीवन की सम्भावना ही नहीं हो पाती। इस प्रकार ओजोन परत के क्षय के कारण पृथ्वी पर तापमान की वृद्धि हो रही है जो हिमनदों को पिघला देगा तथा साथ ही साथ वाष्पीकरण की मात्रा भी अधिक हो जायेगी। इन विषम परिस्थितियों में जलीय चक्र का प्रभावित होना स्वाभाविक है।
(10) पर्यावरण प्रदूषण का प्रभाव :
मानव द्वारा पर्यावरण पर किये गये अतिक्रमण के कारण अवशिष्ट पदार्थो में वृद्धि हुई है तथा साथ ही साथ वायु, जल, एवं ध्वनि प्रदूषण की विकराल समस्या का जन्म हुआ है। विषाक्त धूल कणों, गैसों एवं अवसादों के निक्षेप के कारण जल के विभिन्न रूपों में आकस्मिक परिवर्तन हुआ है जो समवेत रूप में विश्वस्तरीय जल चक्र को प्रभावित कर रहा है।
(11) खनन कार्य का प्रभाव :
औद्योगिक विकास हेतु मानव ने खनिजों, रसायनों एवं शक्ति संसाधनों की खोज हेतु व्यापक रूप से स्थलीय एवं सामुद्रिक भागों में खनन कार्य एवं सुरंगों का निर्माण किया है। इस प्रक्रिया से भूमिगत जल का अनावश्यक विनाश होता है तथा अवशिष्ट पदार्यों के जमाव से जलतल ऊपर उठता है जिससे बाढ़ की सम्भावनाएं बढ़ती है इस प्रकार खनन कार्य भी जलीय चक्र को प्रभावित करता है।
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