आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी (Mahavir Prasad Dwivedi)

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी (Mahavir Prasad Dwivedi

जीवन-परिचय

भाषा के संस्कारकर्त्ता, परिष्कारक, उत्कृष्ट निबन्धकार, प्रखर आलाचक तथा आदर्श सम्पादक द्विवेदीजी को जन्म सन् 1864 ई० में रायबरेली जिले के दौलतपुर ग्राम में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण इनकी शिक्षा सूचारु रूप से सम्पन्न नहीं हो सकी। स्वाध्याय से ही इन्होंने संस्कृत, बॉग्ला, मराठी, फारसी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया और तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएँ भेजने लगे। प्रारम्भ में उन्होंने रेलवे के तार-विभाग में नौकरी की, परन्तु बाद में नौकरी छोड़कर पुरी तरह साहित्य-सेवा में जुट गए। ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादक का पद-भार सँभालने के बाद आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी अपनी अद्वितीय प्रतिभा से हिन्दी-साहित्य को आलोकित किया, उसे निखारा और उसकी अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की।

द्विवेदीजी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था-हिन्दी – भाषा का संस्कार और परिष्कार। उन्होंने आरम्भिक युग की

स्वच्छन्दता को नियन्त्रित किया। द्विवेदीजी ने हिन्दी-भाषा को व्याकरणसम्मत बनाने, उसके रूप को निखारने-सँवारने, उसके शब्द-भण्डार को बढ़ाने और उसको सशक्त, समर्थ एवं परिमार्जित बनाने का महान् कार्य किया। सन् 1931 ई० में ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ ने उन्हें ‘आचार्य’ की तथा ‘हिन्दी-साहित्य सम्मेलन’ ने ‘वाचस्पति’ की उपाधि से विभूषित किया।

सन् 1938 ई० में हिन्दी के यशस्वी साहित्यकार आचार्य द्विवेदी परलोकवासी हो गए।

 

साहित्यिक सेवाएँ

भारतेन्दुजी के पश्चात् द्विवेदीजी दूसरे प्रवर्त्तक साहित्यकार के रूप में विख्यात हुए। भारतेन्दुजी ने हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में नवयुग का सूत्रपात किया तो द्विवेदीजी ने ‘भारतेन्दु युग’ की भाषागत त्रुटियों को दूर किया तथा हिन्दी-भाषा और उसकी शैली को परिष्कृत करके और अधिक समृद्ध बनाया। उनकी साहित्यिक सेवाओं को हम निम्नलिखित रूपों में विभक्त कर सकते हैं-

(1) सम्पादक के रूप में, (2) निबन्धथकार के रूप में, (3) आलोचक के रूप में, ( 4) कवि के रूप में, (5) भाषा-शैली के परिष्कारक के रूप में, (6) लेखकों और कवियों के निर्माता के रूप में।

(1) सम्पादक के रूप में

‘सरस्वती’ के सम्पादक के रूप में उन्होंने हिन्दी-साहित्य की अमूल्य सेवा की। तत्कालीन साहित्य, भाषा और शैली में उन्हें जो त्रुटियाँ और दुर्बलताएँ दिखाई दीं, ‘सरस्वती’ के माध्यम से उन्होंने उन्हें दूर करने का अथक प्रयास किया। उन्होंने प्रतिभासम्पन्न नए लेखकों को प्रेरित किया और उनके साहित्य में सुधार किए। उनके द्वारा सम्पादित ‘सरस्वती’ पत्रिका वास्तव में इस युग की साहित्यिक चेतना का प्रतीक बन गई थी।

(2) निबन्धकार के रूप में

द्विवेदीजी ने पाँच प्रकार के निबन्धों की रचना की-साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक तथा जीवन-परिचय सम्बन्धी। द्विवेदीजी के साहित्यिक निबन्धों को छोड़कर शेष निबन्धों में उनकी निबन्ध-कला का उचित विकास दिखाई नहीं देता। इसका कारण यह है कि द्विवेदीजी के सामने साहित्य सृजन का प्रश्न इतना बड़ा नहीं था जितना कि साहित्य के परिष्कार का।

(3) आलोचक के रूप में

द्विवेदीजी के निबन्धों में आलोचनात्मक निबन्धों की संख्या सर्वाधिक है। ऐसे निबन्धों में उनकी निर्भीकता और तथ्यात्मकता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। द्विवेदीजी ने निम्नलिखित उद्देश्यों को सामने रखकर आलोचनात्मक निबन्धों की रचना की-

  • पुस्तकों के गुण-दोषों को प्रकट करने के लिए,
  • लेखकों और कवियों के गुणों की तुलना करने के लिए,
  • भाषा और शैली के गुण-दोषों का विवेचन करने के लिए,
  • हिन्दी-भाषा के विरोधियों को उत्तर देने के लिए।

(4) कवि के रूप में

यद्यपि द्विवेदीजी एक कर्मठ गद्यकार थे, तथापि उन्होंने पद्य के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा एवं रुचि का परिचय दिया। उन्होंने देशप्रेम सम्बन्धी, भाषा सम्बन्धी, प्राचीन रूढ़ियों के प्रति असन्तोष प्रकट करनेवाली तथा ज्ञानवर्द्धक रचनाएँ सृजित कीं। इन रचनाओं में उन्होंने नए विचार, नए भाव, नए छन्द और नई कल्पनाओं का समावेश किया है।

(5) भाषा-शैली के परिष्कारक के रूप में

इस रूप में द्विवेदीजी की सेवाओं का मूल्य ऑकना सम्भव नहीं है। आज भाषा और शैली का जो परिष्कृत और विकसित रूप दिखाई देता है, वह द्विवेदीजी के ही प्रयासों का परिणाम है। वे भाषा के महान् शिल्पी थे। एक चतुर शिल्पी की भाँति उन्होंने हिन्दी खड़ीबोली को सँवारा और उसमें प्राण-प्रतिष्ठापना भी की।

(6) लेखकों और कवियों के निर्माता के रूप में

द्विवेदीजी ने नए-नए लेखकों और कवियों को प्रभावपूर्ण लेखन की दृष्टि से दक्ष बनाया। उन्होने हिन्दी भाषा का प्रचार करके लोगों के हृदय मे हिन्दी के प्रति परेन जागृत किया। वे नए लेखकों की रचनाओं में यथासम्भव संशोधन कर ‘सरस्वती’ में प्रकाशित भी किया करते थे।

 

कृतियाँ

द्विवेदीजी की रचना-सम्पदा विशाल है। उन्होंने पचाम से भी अंधिक ग्रन्थो तथा सैकड़ों निबन्धों को रचना की। उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-

(1) काव्य-संग्रह- काव्य-मजूषा।

(2) निबन्ध- द्विवेदीजी के सर्वाधिक निबन्ध ‘सरस्वती’ तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं एवं निबन्ध-संग्रहों के रूप में प्रकाशित हुए हैं।

(3) आलोचना- (1) नाट्यशास्त्र, (2) हिन्दी-नवरल, (3) रसज्ञ-रंजन, (4) साहित्य-सीकर, (5) विचार-विमर्श, (6) साहित्य-सन्दर्भ, (7) कालिदास एवं उनकी कविता, (8) कालिदास की निरंकुशता आदि।

(4) अनूदित- (1) मेघदूत, (2) वेकन-विचारमाला, (8) शिक्षा, (4) स्वाघीनता, (5) विचार-रत्नावली, (6) कुमारसम्भव, (7) गंगालहरी, (8) विनय-विनोद, (9) रघुवंश, (10) किराताजुनीय, (11) हिन्दी महाभारत आदि।

(5) विविध- (1) जल-चिकित्सा, (2) सम्पत्तिशास्त्र, (3) बक्तृत्व-कला आदि।

(6) सम्पादन- सरस्वती’ मासिक पत्रिका।

 

भाषा-शैली

द्विवेदीजी हिन्दी-भाषा के आचार्य थे। अपनी प्रारम्भिक रचनाओं में उन्होंने जिस भाषा का प्रयोग किया, वह निरन्तर समृद्ध और व्याकरण-सम्मत होती चली गई। उनकी भाषा विविधरूपिणी है। कहीं उनकी भाषा बोलचाल के बिल्कुल निकट है तो कहीं शुद्ध साहित्यिक और क्लिष्ट संस्कृतमयी। शैली के रूप में उन्होंने भावात्मक, विचारात्मक, गर्वेषणात्मक, सवादात्मक, वर्णनात्मक एवं व्यंग्यात्मक शैलियों का प्रयोग प्रमुखता से किया है।

 

हिन्दी-साहित्य में स्थान

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी-साहित्य के युग प्रवर्त्तक साहित्यकारों में से पक थे। वे समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपने वैचारिक योगदान की दृष्टि से ‘नवचेतना के संवाहक’ के रूप में अवतरित हुए। उन्हें शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली का वास्तविक प्रणेता माना जाता है। उनकी विलक्षण प्रतिभा ने सुन 1900 ई० से 1922 ई० तक हिन्दी-साहित्य के व्योम को प्रकाशित रखा, जिसकी ज्योति आज भी हिन्दी-साहित्य का मार्गदर्शन कर रही है। इसी कारण हिन्दी-साहित्य के इतिहास में सन् 1900 ई० से 1922 ई० तक के समय को ‘द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है।

 

 

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