वक्रोक्ति सम्प्रदाय का सामान्य परिचय | क्रोचे के अभिव्यंजनावाद के निष्कर्ष | अभिव्यंजनावाद और वक्रोक्तिवाद का सम्बन्ध | वक्रोक्ति सिद्धान्त और अभिव्यंजनाबाद में समानता | अभिव्यंजना और वक्रोक्ति में विषमता | वक्रोक्ति और अभिव्यंजनावाद की समानता एवं असमानता का वर्णन
वक्रोक्ति सम्प्रदाय का सामान्य परिचय | क्रोचे के अभिव्यंजनावाद के निष्कर्ष | अभिव्यंजनावाद और वक्रोक्तिवाद का सम्बन्ध | वक्रोक्ति सिद्धान्त और अभिव्यंजनाबाद में समानता | अभिव्यंजना और वक्रोक्ति में विषमता | वक्रोक्ति और अभिव्यंजनावाद की समानता एवं असमानता का वर्णन
वक्रोक्ति सम्प्रदाय का सामान्य परिचय
कुन्तक भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख आचार्य हैं। इनकी प्रसिद्धि वक्रोक्ति सिद्धान्त के प्रवर्तक के रूप में है। इन्होंने ‘वक्रोक्ति जीवित’ नाम के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें वक्रोक्ति को काव्य का जीवन माना गया है। वैसे आचार्य कुन्तक के मत में वेदाध्य भंगी भणिति रूप वक्रोक्ति रस, ध्वनि तथा औचित्य-इन तीनों का अपने में समावेश किये हुए है। आचार्य कुन्तक ने बक्रोक्ति की परिभाषा करते हुए लिखा है-
वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्य भंगी भणिति रुच्यते ।
(कवि की रचना-चातुर्य से सुशोभित विचित्र उक्ति बक्रोक्ति कही जाती है।)
अभिव्यंजना शब्द अंग्रेजी के एक्सप्रेशन (Expression) शब्द के स्थान पर प्रयोग किया जाता है। यह सिद्धान्त अंग्रेजी के प्रसिद्ध पाश्चात्य आलोचक बेनेडेट क्रोचे का है। क्रोचे ने दो प्रकार का ज्ञान माना है-प्रातिम ज्ञान और प्रत्यक्ष ज्ञान। क्रोचे का कथन है कि प्रत्यक्ष दर्शन भी प्रातिभ ज्ञान होता है, किन्तु इन दोनों में थोड़ा अन्तर है। क्रोचे प्रत्यक्षानुभूति को प्रत्यक्ष वास्तविकता का ज्ञान मानते थे। इस विषय में क्रोचे ने कहा है-
‘प्रत्यक्षानुभूति में वास्तविकता और अवास्तविकता के अन्तर का ज्ञान रहता है। इसमें देशकाल का ज्ञान रहता है, किन्तु प्रातिभ ज्ञान के अवसर पर ऐसा कोई भेद नहीं रहता, उसमें वास्तविकता और सम्भव का अभिन्न ऐक्य स्थापित हो जाता है। सत्य और झूठ, इतिहास और कथा के अन्तर को समझाने में असमर्थ शिशु कुछ हद तक, किन्तु अस्पष्ट रूप से प्रातिभ ज्ञान की भावना का हमें बोध करा सकता है। क्रोचे के अनुसार प्रत्येक प्रातिभ ज्ञान अभिव्यंजना भी होता है। जिसकी अभिव्यंजना नहीं हो पाती, वह प्रातिभ ज्ञान न होकर संवेदन मात्र प्रातिभ ज्ञान होता है। अभिव्यंजना अथवा अभिव्यक्ति दो प्रकार की होती है-शाब्दिक अभिव्यंजना और मूक अभिव्यंजना यह हमारा भ्रम है कि हम शाब्दिक अभिव्यंजना को ही अभिव्यंजना मान लेते हैं। अभिव्यंजना किसी न किसी रूप में प्रातिभ ज्ञान का अनिवार्य तत्व है। प्रातिभ ज्ञान और अभिव्यंजना में एकता का ज्ञान हो जाना सरल है। अन्तर्मन की क्रिया जब हमारी सम्वेदना को अपने में खपाकर उसके साथ एकाकार हो जाती है तो उस समय उस सम्वेदना का जो ठोस रूप निर्मित होता है, वही प्रातिम ज्ञान है, वही ठोस अथवा मूर्त अभिव्यंजना ही प्रातिभ ज्ञान है।
क्रोचे की अभिव्यंजना को स्पष्ट करते हुए डॉ. भगीरथ दीक्षित ने लिखा है—
‘क्रोचे के अनुसार काव्य (रस-कला) प्रातिभ ज्ञान ही है। जो लोग यह कहते हैं कि काव्य प्रातिभ ज्ञान तो है, किन्तु प्रातिभ ज्ञान सदैव मान्य नहीं होता। कलात्मक प्रातिभ ज्ञान सामान्य प्रातिभ ज्ञान से भिन्न जाति का होता है, वह कुछ अधिक होता है। इन लोगों को क्रोचे गलत मानता है। इसका स्पष्ट मत है कि सामान्य प्रातिभ ज्ञान और कवि के प्रातिभ ज्ञान में कोई विशिष्ट अन्तर नहीं होता है। कवि का प्रातिभ ज्ञान सामान्य जन के प्रातिभ ज्ञान की अपेक्षा अधिक व्यापक या मिश्रित हो सकता है, किन्तु ये दोनों संबेदनों और प्रभावों के ही प्रातिभ ज्ञान होते हैं। इनका अन्तर विचार या व्यापकता होना है, किन्तु मूलतः दोनों एक हैं।’
क्रोचे ने अभिव्यंजना के जो दो भेद शाब्दिक और मूक बताये हैं, वे काव्य और कला हैं। कविता शाब्दिक अभिव्यंजना है और कला मूक अभिव्यंजना है। जब चित्रकार किसी वस्तु की झलक देखता है, तब हम यह कहने में समर्थ नहीं होते कि उसे सहज ज्ञान हुआ है। कलाकार को सहज ज्ञान की उपलब्धि तब मानी जायेगी, जब वह, उसका पूर्ण रूप से प्रत्यक्षीकरण कर लेगा। जब वह अपने अन्तर्मन में उसे पूर्णरूप से अभिव्यक्त करके मूर्ति या चित्र का रूप प्रदान करेगा। इस प्रकार क्रोचे के मत सहजानुभूति आन्तरिक अभिव्यंजना अथवा आन्तरिक रूप-रचना है। सौन्दर्य तत्व का जन्म इसी से होता है। यह सम्वेदनों को अपने आप में खपाकर उनके साथ एकाकार होकर एक मूर्तरूप प्राप्त कर लेती है। वह (क्रोचे) इसे आत्मा का अभिव्यंजनात्मक कर्म (Expression activity) मानता है। इसी कर्म के द्वारा कलाकार भावनाओं तथा संवेगों के वेग को नियन्त्रण में रखता है और प्रभावों को बिना अभिव्यक्त करके स्वयं उससे मुक्त हो जाता है। वस्तुतः क्रोचे की अभिव्यंजना और कॉलरिज की प्राथमिक कल्पना में कोई विशेष अन्तर नहीं है। कॉलरिज भी तो इन्द्रिय-बोधों और संवेदनों को व्यवस्था में ढालने वाली अन्तः-शक्ति को प्राथमिक कल्पना कहता है।’
क्रोचे के अभिव्यंजनावाद के निष्कर्ष-
क्रोचे के अभिव्यंजनाबाद के निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-
(1) कला, अभिव्यंजना और सहजानुभूति पर्यायवाची हैं।
(2) अभिव्यंजना बाह्य नहीं, मानसिक अथवा आन्तरिक होती है, अतः कला आन्तरिक प्रक्रिया है।
(3) बाह्य कलाकृतियों द्वारा कलाकार अपने अनुभव को अपने तथा दूसरों के लिए सुरक्षित रखता है, अतः वे Side to memory (स्मृति का एक पक्ष) है।
(4) असफल अभिव्यंजना नाम की कोई वस्तु नहीं होती।
अभिव्यंजनावाद और वक्रोक्तिवाद का सम्बन्ध-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल क्रोचे के अभिव्यंजनाबाद को भारतीय आलोचना की वक्रोक्ति का विलायती संस्करण मानते थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में व्याख्यान देते हुए कहा था- ‘क्रोचे को अभिव्यंजनावाद सच पूछिए तो एक प्रकार का बक्रोक्तिवाद है।’ बाद में आलोचकों ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की इस धारणा को भ्रमपूर्ण कहना वास्तविकता यह है कि भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार जो रूप या अभिव्यंजना है, क्रोचे उसे रूप अथवा अभिव्यंजना स्वीकार नहीं करता। क्रोचे के सैद्धान्तिक अभिव्यंजनाबाद में अभिव्यंजना के आन्तरिक होने के कारण वाग्वैदग्ध्य के लिए कोई स्थान नहीं है। इन दोनों सिद्धान्तों में कुछ साम्य होते हुए भी उतना ही अन्तर है, जितना पूर्व और पश्चिम में होता है।
वक्रोक्ति सिद्धान्त और अभिव्यंजनाबाद में समानता-
डॉ. नगेन्द्र ने ऐसे अनेक बिन्दुओं की खोज की है जिनमें क्रोचे का अभिव्यंजनाबाद और कुन्तक के वक्रोक्ति सिद्धान्त में समानताएँ व्यक्त की जा सकती हैं। वे बिन्दु निम्नलिखित हैं-
(1) दोनों अभिव्यंजना को ही काव्य का प्राण-तत्त्व मानते हैं।
(2) दोनों ने काव्य-तत्व में कल्पना का स्थान प्रमुख माना है।
(3) दोनों ही मूलतः उक्ति को अखण्ड, अविभाज्य और अद्वितीय स्वीकार करते हैं। क्रोचे के समान कुन्तक ने भी अलंकार और अलंकार्य का भेद नहीं माना है।
(4) दोनों ही सफल अभिव्यंजना अथवा सौन्दर्य अभिव्यंजना में श्रेणी विभाजन स्वीकार नहीं करते।
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने डॉ. नगेन्द्र द्वारा खोजे गये क्रोचे और कुन्तक की मान्यताओं के साम्य को, डॉ. नगेन्द्र की प्रतिभा-शक्ति का चमत्कार मानते हुए लिखा है-
‘यद्यपि डॉ. नगेन्द्र ने अपनी प्रतिभा शक्ति के बल पर दोनों में थोड़ा साथ खोज निकाला है, किन्तु यह साम्य भी केवल शाब्दिक है, ऊपरी है। अर्थ की दृष्टि से भीतर प्रवेश किया जाये तो वहाँ भी दोनों में गहरा वैषम्य दृष्टिगोचर होगा। उदाहरण के लिए इसी निष्कर्ष को लीजिए कि दोनों ही अभिव्यंजना को काव्य का प्राणतत्व मानते हैं। अभिव्यंजना से सामान्यतः काव्य के माध्यम या शैली का तात्पर्य लिया जाता है, किन्तु क्रोचे के लिए अनुभूत से अलग शैली का कोई अस्तित्व ही नहीं है, जबकि कुन्तक शैली की बक्रता को ही काव्यत्व का सारा श्रेय दे डालते हैं। अतः कुन्तक और क्रोचे के अभिव्यंजना सम्बन्धी दृष्टिकोणों में आकाश-पाताल का अन्तर है। इसी प्रकार उक्ति की अखण्डता के सम्बन्ध में भी दोनों का दृष्टिकोण परस्पर विरुद्ध है। क्रोचे वस्तुतः अखण्ड मानते हैं, जबकि कुन्तक वर्णविन्यास वक्रता, पद-परार्थ वक्रता आदि के भेदों का निरूपण करके उसे खण्ड खण्ड रूप में देखते हैं।’
अभिव्यंजना और वक्रोक्ति में अनेक साम्य हैं। यह बात अलग है कि डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने उन पर ध्यान नहीं दिया है। दोनों में कल्पना के अनिवार्य तत्व होने पर सहमति है। क्रोचे ने इसका स्पष्ट रूप से प्रयोग किया है, पर क्रोचे की सहजानुभूति कल्पनात्मक क्रिया के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। आचार्य कुन्तक ने कल्पना शब्द का प्रयोग नहीं किया है, पर जब वे कबि- व्यापार, उत्पाद्य, लावण्य, वक्रोक्ति का विवेचन करते हैं, तो उनका अप्रत्यक्ष संकेत समानता की ओर ही होता है। डॉ. एस. केण्डे ने भी यह स्वीकार किया है कि कुन्तक का वक्रोक्ति का आधार कल्पना को मानना सर्वथा उचित है।
क्रोचे और कुन्तक दोनों ही कल्पना में श्रेणी विभाजन स्वीकार नहीं करते हैं। दोनों के अनुसार काव्य में या तो अभिव्यंजना का सर्वथा अभाव रहेगा। यदि कल्पना होगी तो एकल ही होगी। कुन्तक और क्रोचे दोनों की मान्यता के अनुसार अभिव्यंजना अथवा उक्ति (वक्रोक्ति) मूल रूप से पूर्ण, खण्डरहित तथा विभाजनहीन है।
अभिव्यंजना और वक्रोक्ति में विषमता
क्रोचे के अभिव्यंजनावाद और कुन्तक की वक्रोक्ति में निम्नलिखित भिन्नता है—
अभिव्यंजनावाद की स्थापना अथवा प्रवर्तन करने वाले क्रोचे की मान्यता कला का सम्बन्ध स्वयं प्रकाश ज्ञान में है, इसके विपरीत कुन्तक शास्त्रीय ज्ञान को भी कला से सम्बन्धित मानते हैं।
क्रोचे की दृष्टि में उक्ति की सहज स्वाभाविकता में ही काव्य का सौन्दर्य है, इसके विपरीत कुन्तक वक्रता और विचित्रता को सौन्दर्य का मूल आधार स्वीकार करते हैं। क्रोचे की दृष्टि में मानसिक अभियंजना प्रमुख है। उनकी मान्यता के अनुसार बाह्य अभिव्यक्ति गौण है, इसके पूर्णरूप से विरुद्ध आचार्य कुन्तक ने बाह्य अभिव्यक्ति अर्थात् शाब्दिक अभिव्यक्ति मात्र का विवेचन किया है।
क्रोचे ने जिस मानसिक अभिव्यक्ति पर बल दिया है, कुन्तक ने उसकी कोई विवेचना नहीं की है, उसका नाम तक नहीं लिया है।
क्रोचे ने कला को विभागहीन अथवा अविभाज्य माना है, जबकि कुन्तक आचार्य ने कला (काव्य) के भेदों और उपभेदों का निरूपण किया है।
क्रोचे की दृष्टि में काव्य की रचना का उद्देश्य कबि की आत्म-तुष्टि है। इसके विपरीत कुन्तक की दृष्टि में कविता का उद्देश्य सहृदय के मन में प्रसन्नता का संचार करना है।
इस दृष्टि से अथवा इन आधारों पर विचार करें तो पाश्चात्य वैज्ञानिक क्रोचे के अभिव्यंजनावाद और भारतीय काव्यशास्त्री आचार्य कुन्तक के वक्रोक्तिवाद में धरती-आकाश अथवा पूर्व और पश्चिम के समान अन्तर है।
क्रोचे कला का सम्बन्ध स्वयं प्रकाश ज्ञान से मानते हैं, कुन्तक शास्त्रीय ज्ञान को भी कला से सम्बद्ध मानते हैं।
क्रोचे काव्य को कवि का आत्मलोक मानते हैं। उनकी दृष्टि में कला का सफल आनन्द सफल अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-मुक्ति का आनन्द है, पर कुन्तक आनन्द को सौन्दर्य की सिद्धि मानते हैं। जिस वस्तु से आह्लाद प्राप्त हो, सौन्दर्य उसी में है। कुन्तक रमणीयता को सहदयों को प्राप्त आह्लाद के व्यापार पर निर्भर मानते हैं।
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