सोहनलाल द्विवेदी (Sohan Lal Dwivedi)
सोहनलाल द्विवेदी (Sohan Lal Dwivedi)
जीवन-परिचय
सोहनलाल द्विवेदी का जन्म 1905 ई० में फतेहपुर जिले के बिन्दकी नामक कस्बे में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता का नामं पं० बिन्दाप्रसाद द्विवेदी था। इन्होंने हाईस्कूल तक शिक्षा फतेहपुर में और उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राप्त की। एम० ए०, एल-एल० बी० पास करके कुछ दिनों तक आपने वकालत भी की थी, किन्तु महामना मालवीय जी के सम्पर्क में रहने के कारण महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर ये स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय रूप से सम्मिलित हो गये।
इन्हें प्रारम्भ से ही कविता करने में रुचि थी किन्तु काव्य-रचना के साथ-साथ ये राजनीति में भी भार लेते रहे हैं। आपका शरीरान्त 1988 ई० में हो गया।
रचनाएँ
भैरवी, पूजा-गीत, प्रभाती, चेतना और वासन्ती (काव्य-संग्रह), बाल साहित्य-दूध-बताशा, शिशुभारती, बालभारती, आख्यान काव्य -कुणाल, वासवदत्ता, विषपान।
काव्यगत विशेषताएँ
(क) भाव-पक्ष- द्विवेदी जी गाँधीवादी विचारधारा के कवि हैं। उनकी कविताओं का मुख्य विपय राष्ट्रीय जागरण एवं उद्बोधन है। इनकी रचनाओं को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
राष्ट्रीय-साहित्य- द्विवेदी जी की राष्ट्रीय कविताओं में खादी प्रचार, ग्राम-सुधार, देश-भक्ति, सत्य, अहिंसा और प्रेम का सन्देश मुखरित हुआ है। ये गांधी जी को इन सबका सृजनकतर्ता मानकर उन्हें युगावतार के रूप में देखते हैं। गाँधी जी के विषय में ये कहते हैं-
“चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर।
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गंड़ गये कोटि द्ग उसी ओर।”
बाल-साहित्य- दूसरे भाग में द्विवेदी जी का बाल-साहित्य आता है। इसमें इन्होंने देश के होनहार बालकों को भावी राष्ट्र मानकर उनके लिए प्रेरणाप्रद स्वस्थ साहित्य का सृजन किया है। इनकी बालोपयोगी रचनाएँ अत्यन्त लोकप्रिय, सरस और मधुर हैं। बालकों को ये प्रकृति का सन्देश सुनाते हैं-
“पर्वत कहता शीश उठाकर, तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर, मन में गहराई लाओ॥”
इनके अतिरिक्त द्विवेदी जी ने अपने आख्यान काव्यों में भारतीय संस्कृति के वर्णन के साथ मानव हृदय के अन्तर्द्वन्द्वों का भी सफल चित्रण किया है।
(ख) कला-पक्ष-भाषा : द्विवेदी जी की भाषा सरस, बोधगम्य, सीधी-सादी और स्वाभाविक खड़ीबोली है। इन्होंने अपनी उत्कृष्ट और गम्भीर रचनाओं में संस्कृत के तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग किया है तथा बालोपयोगी साहित्य में सरल व्यावहारिक मुहावरेदार भाषा का प्रयोग है। इसमें आवश्यकतानुसार उदू के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है।
शैली- द्विवेदी जी के काव्यों में विविध शैलियों का दर्शन होता है। इनमें इतिवृत्तात्मक, ओजपूर्ण, गीतात्मक एवं मनोरंजनात्मक शैली मुख्य हैं । इनकी शैली में सर्वत्र पूर्ण प्रवाह और रोचकता है।
रस- द्विवेदी जी की रचनाओं में विशेषत: वीर तथा हास्य रस की अनुभूति होती है। कहीं-कहीं सरिंगरात्मक भावनाएँ भी हैं।
छन्द- द्विवेदी जी ने युगानुरूप गीतात्मक एवं गेय छन्दों का प्रयोग किया है।
अलंकार- द्विवेदी जी की कविता में व्यर्थ का अलंकार प्रदर्शन नहीं है, बल्कि उसमें उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अत्यन्त प्रचलित अलंकार का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
साहित्य में स्थान
आधुनिक काल में राष्ट्रयता से पूर्ण, गाँधीवादी कवियों और बाल साहित्यकारों में द्विवेदी जी का प्रमुख स्थान है।
स्मरणीय तथ्य
जन्म- 1905 ई०, बिन्दकी, जिला फतेहपुर, (उ० प्र० ) ।
मृत्यु- 1988 ई०।
पिता का नाम- बिन्दाप्रसाद द्विवेदी।
रचनाएँ- ‘भैरवी, ‘वासवदत्ता’, ‘कुणाल’, ‘विषपान’, ‘पूजा’ ‘वासन्ती’।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्ण्य-विषय- राष्ट्रीय-साहित्य, बाल-साहित्य, सांस्कृतिक-साहित्य और सम्पादित-साहित्य रचना, प्रकृति-चित्रण।
भाषा- 1. संस्कृत के तत्सम शब्दों से युक्त। 2. व्यावहारिक तथा मुहावरा युक्त भाषा।
शैली- 1. इतिवृत्तात्मक प्रभावपूर्ण शैली। 2. ओजपूर्ण शैली । 3. मनोरंजनात्मक शैली। 4 गीतात्मक शैली।
अलंकार- उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, अनुप्रास तथा वीप्सा अलंकार आदि।
छन्द- गीतात्मक छन्द।
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