मीराबाई (Mirabai)
मीराबाई (Mirabai)
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जीवन-परिचय
मीराबाई का जन्म राजस्थान में मेड़ता के पास चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई० के आसपास हुआ था। इनके पिता का नाम रतनसिंह था। उदयपुर के राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ इनका विवाह हुआ था, किन्तु विवाह के थोड़े ही दिनों बाद इनके पति की मृत्यु हो गयी।
मीरा बचपन से ही भगवान् कृष्ण के प्रति अनुरक्त थीं। सारी लोक-लज्जा की चिन्ता छोड़कर साधुओं के साथ कीर्तन-भजन करती रहती थीं। उनका इस प्रकार का व्यवहार उदयपुर के राज-मरयादा के प्रतिकूल था। अत: उन्हें मारने के लिए जहर का प्याला भी भेजा गया था, किन्तु ईश्वरीय कृपा से उनका बाल-बॉका तक नहीं हुआ। परिवार से विरक्त होकर वे वृन्दावन और वहाँ से द्वारिका चली गयी और 1546 ई० में स्वर्गवासी हुई।
रचनाएँ
मीराबाई ने भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम में अनेक भावपूर्ण गेय पदोँ की रचना की है जिसके संकलन विभिन्न नामों से प्रकाशित हुए हैं। नरसीजी का मायरा, राम गोविन्द, राग सीरठ के पद, गीत गोविन्द की टीका मीराबाई की रचनाएँ हैं।
काव्यगत विशेषताएँ
(क) भाव-पक्ष- मीरा कृष्णभक्ति शाखा की सगुणोपासिका भक्त कवयित्री हैं। इनके काव्य का वर्ण्य-विषय एकमात्र नटवर नागर श्रीकृष्ण का मधुर प्रेम है।
(1) विनय तथा प्रार्थना सम्बन्धी पद- जिनमें प्रेम सम्बन्धी आतुरता और आत्मस्वरूप समर्पण की भावना निहित है।
(2) कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन सम्बन्धी पद – जिनमें मनमोहन श्रीकृष्ण के मनमोहक स्वरूप की झाँकी प्रस्तुत की गयी है।
(3) प्रेम सम्बन्धी पद- जिनमें मीरा के श्रीकृष्ण प्रेम सम्बन्धी उत्कट प्रेम का चित्रांकन है। इनमें संयोग और वियोग दोनों पक्षों का मार्मिक वर्णन हुआ है।
(4) रहस्यवादी भावना के पद- जिनमें मीरा के निर्गुण भक्ति का चित्रण हुआ है।
(5) जीवन सम्बन्धी पद- जिनमें उनके जीवन सम्बन्धी घटनाओं का चित्रण हुआ है।
(ख) कला-पक्ष- (1) भाषा-शैली- मीरा के काव्य की भाषा ब्रजी है जिसमें राजस्थानी, गुजराती, भोजपुरी, पंजाबी भाषाओं के शब्द हैं । मीरा की भाषा भावों की अनुगामिनी है । उनमें एकरूपता नहीं है फिर भी स्वाभाविकता, सरसता और मधुरता कूट-कूटकर भरी हुई हैं।
(2) रस-छन्द-अलंकार- मीरा की रचनाओं में श्रृंगार रस के दोनों पक्ष, संयोग और वियोग का बड़ा ही मार्मिक वर्णन हुआ है। इसके अतिरिक्त शान्त रस का भी बड़ा ही सुन्दर समावेश हुआ है। मीरा का सम्पूर्ण काव्य गेय पदों में है जो विभिन्न राग-रागनियों में बँधे हुए हैं। अलंकारों का प्रयोग मीरा की रचनाओं मेंस्वाभाविक ढंग से हुआ है। विशेषकर वे उपमा, रूपक, दृष्टान्त आदि अलंकारों के प्रयोग से बड़े ही स्वाभाविक हुए हैं।
साहित्य में स्थान
हिन्दी गीति काव्य की परम्परा में मीरा का अपना अप्रतिम स्थान है। प्रेम की पीड़ा का जैसा मर्मस्पर्शी वर्णन मीरा की रचनाओं में उपलब्ध होता है वैसा हिन्दी साहित्य में अन्यत्र सुलभ नहीं है।
स्मरणीय तथ्य
जन्म- 1498 ई०।
पति- महाराणा भोजराज।
मृत्यु- 1546 ई० के आसपास।
पिता- रतन सिंह।
रचना- गेय पद।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्ण्य-विषय- विनय, भक्ति, रूप-वर्णन, रहस्यवाद, संयोग वर्णन।
रस- शृंगार (संयोग-वियोग), शान्त।
भाषा- ब्रजभाषा, जिसमें राजस्थानी, गुजराती, पूर्वी पंजाबी और फारसी के शब्द मिले हैं।
शैली- गीतकाव्य की भावपूर्ण शैली ।
छन्द- राग-रांगनियों से पूर्ण गेय यद।
अलंकार- उपमा, रूपक, दूष्टान्त आदि।
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Thankyou so much it helps me a lot
कम शब्दों में इतना अच्छा एवं महत्वपूर्ण ज्ञान देने के लिये आप को हृदय से आभार🙏😍