तुलसीदास

तुलसीदास (Tulsidas)

तुलसीदास (Tulsidas)

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जीवन-परिचय

लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन से सम्बन्धित प्रामाणिक सामग्री अभी तक नहीं प्राप्त हो सकी है। डॉ० नगेन्द्र द्वारा लिखित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में उनके सन्दर्भ में जो प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं-बेनीमाधव प्रणीत ‘मूल गोसाईंचरित’ तथा महात्मा रघुबरदास रचित तुलसीचरित’ में तुलसीदास जी का जन्म संवत् 1554 वि० (सन् 1497 ई०) दिया गया है। बेनीमाधवदास की रचना में गोस्वामीजी की जन्म-तिथि श्रावण शुक्ला सप्तमी का भी उल्लेख है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है-

पंद्रह सौ चौवन बिसै, कारलिंदी के तीर।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धर्यौ सरीर।।

‘शिवसिंह सरोज’ में इनका जन्म संवत् 1583 वि० (सन् 1526 ई०) बताया गया है। पं० रामगुलाम द्विवेदी ने इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532 ई० ) स्वीकार किया है । सर जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा भी इसी जन्म संवत् को मान्यता दी गई है। निष्कर्ष रूप में जनश्रुतियों एवं सर्वमान्य तथ्यों के अनुसार इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1582 ई०) माना जाता है।

इनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद हैं। ‘तुलसी-चरित’ में इनका जन्मस्थान राजापुर बताया गया है, जो उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले का एक गाँव है। कुछ विद्वान् तुलसीदास द्वारा रचित पंक्ति “मैं पुनि निज गुरु सन सुनि, कथा सो सूकरखेत” के आधार पर इनका जन्मस्थल एटा जिले के ‘सोरो नामक स्थान को मानते हैं, जबकि कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि ‘सूकरखेत’ को भ्रमवश ‘सोरो मान लिया गया है। वस्तुतः यह स्थान आजमगढ़ में स्थित है। इन तीनों मतों में इनके जन्मस्थान को राजापुर माननेवाला मत ही सर्वाधिक उपयुक्त समझा जाता है।

जनश्रुतियों के आधार पर यह माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दूबे एवं माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था। इनका पालन-पोषण प्रसिद्ध सन्त बाबा नरहरिदास ने किया और इन्हें ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रदान की। इनका विवाह एक ब्राह्मण-कन्या रत्नावली से हुआ था। कहा जाता है कि ये अपनी रूपवती पतलनी के प्रति-अत्यधिक आसक्त थे। इस पर इनकी पत्नी ने एक बार इनकी भत्त्सना की, जिससे ये प्रभु-भक्ति की ओर उन्मुख हो गए।

संवत् 1680 (सन् 1623 ई० ) में काशी में इनका निधन हो गया।

 

साहित्यिक व्यक्तित्व

महाकवि तुलसीदास एक उत्कृष्ट कवि ही नहीं, महान् लोकनायक और तत्कालीन समाज के दिशा-निर्देशक भी थे इनके द्वारा रचित महाकाव्य ‘श्रीरामचरितमानस’; भाषा, भाव, उद्देश्य, कथावस्तु, चरित्र-चित्रण तथा संवाद की दृष्टि से हिन्दी – साहित्य का एक अद्भुत ग्रन्थ है। इसमें तुलसी के कवि, भक्त एवं लोकनायक रूप का चरम उत्कर्ष दृष्टिगोचर होता है। ‘श्रीरामचरितमानस’ में तुलसी ने व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य, राजा, प्रशासन, मित्रता, दाम्पत्य एवं भ्रातृत्व आदि का जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह सम्पूर्ण विश्व के मानव समाज का पथ-प्रदर्शन करता रहा है । ‘विनयपत्रिका’ ग्रन्थ में ईश्वर के प्रति इनके भक्त-हृदय का समर्पण दृष्टिगोचर होता है। इसमें एक भक्त के रूप में तुलसी ईश्वर के प्रति दैन्यभाव से अपनी व्यथा-कथा कहते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास की काव्य-प्रतिभा का सबसे विशिष्ट पक्ष यह है कि ये समन्वयवादी थे। इन्होंने श्रीरामचरितमानस’ में राम को शिव का और शिव को राम का भक्त प्रदर्शित कर वैष्णव एवं शैव सम्प्रदायों में समन्वय के भाव को अभिव्यक्त किया। निषाद एवं शबरी के प्रति राम के व्यवहार का चित्रण कर समाज की जातिवाद पर आधारित भावना की निस्सारता (महत्त्वहीनता) को प्रकट किया और ज्ञान एवं भक्ति में समन्वय स्थापित किया। संक्षेप में तुलसीदास एक विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न तथा लोकहित एवं समन्वय भाव से युक्त महाकवि थे।

संक्षेप मे तुलसीदास एक विलक्षण प्रतिभा से संपन्न तथा लोकहित एवं समन्वय भाव से युक्त महाकवि थे।भाव-चित्रण, चरित्र-चित्रण एवं लोकहितकारी आदर्श के चित्रण की दृष्टि से इनकी काव्यात्मक प्रतिभा का उदाहरण सम्पूर्ण विश्व-साहित्य में भी मिलना दुर्लभ है।

 

कृतियाँ

श्रीरामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘कवितावली, ‘गीतावली’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’, ‘दोहावली ‘जानकी-मंगल’, ‘पार्वती-मंगल, ‘वैराग्य-सन्दीपनी’ तथा ‘बरवै-रामायण’ आदि।

 

काव्यगत विशेषताएँ

तुलसीदास के काव्य की प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित रूपों में प्रदर्शित किया जा सकता है-

(अ) भावपक्षीय विशेषताएँ

(1) श्रीराम का गुणगान- महाकवि तुलसी ने अपनी अधिकांश कृतियों में श्रीराम के अनुपम गुणों का गान किया है। शील, शक्ति और सौन्दर्य के भण्डार मर्यादापुरुषोत्तम राम उनके इष्टदेव हैं। तुलसी अपना सम्पूर्ण जीवन उन्हीं के गुणगान में लगा देना चाहते हैं। उनका मत है कि श्रीराम और सीता के विरोधियों को बिना किसी संकोच के त्याग देना चाहिए-

जाके प्रिय न राम बैदेही।

तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही ॥

(2) भक्ति-भावना- तुलसी की भक्ति दास्य-भाव की है। उन्होंने स्वयं को श्रीराम का दास और श्रीराम को अपना स्वामी माना है। वे राम को बहुत बड़ा और स्वयं को दीन-हीन व महापतित मानते हैं। अपने उद्धार के लिए वे प्रभु-भक्ति की याचना करते हैं और कहते हैं-

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहु राम सिय मानस मोरे॥

तुलसी को अपने इष्टदेव पर पूर्ण विश्वास है। चातक के समान वे राम पर एकनिष्ठ विश्वास करते हैं-

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।

एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥

(3) ‘स्वान्त:सुखाय’ रचना- तुलसी ने समग्र ग्रन्थों की रचना ‘स्वान्तःसुखाय’ अर्थात् अपने अन्तःकरण के सुख के लिए की है। श्रीराम उन्हें प्रिय हैं। उनका रोम-रोम श्रीराम के चरणों का पुजारी है। इससे उन्हें आत्मिक सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। वे कहते हैं-

स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा।

(4) समन्वय की भावना- तुलसीदासजी समन्वय भावना के साधक हैं। उन्होंने सगुण – निर्गुण, ज्ञान-भक्ति, शैव-वैष्णव और विभिन्न मतों व सम्प्रदायों में समन्वय स्थापित किया। निर्गुण और सगुण को एक मानते हुए उन्होंने कहा है-

अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

इसी प्रकार ज्ञान और भक्ति को एक मानते हुए उन्होंने लिखा है-

ज्ञानहिं भगतिरहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥

तुलसी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों में भी समन्वय स्थापित किया।

(5) शिवम् की भावना- तुलसी का काव्य शिवम् (कल्याण) की भावना से युक्त है। यद्यपि उनका काव्य मूलत: अपने अन्त:करण के सुख के लिए ही रचित है, लेकिन इसके साथ-साथ वह जन-जन का कल्याण करनेवाला भी है। उन्होंने अपने काव्य में नीति, रीति और आदर्श को प्रस्तुत किया है, जिसका अध्ययन एवं चिन्तन-मनन सभी का मंगल करनेवाला है। उन्होंने राजा- प्रजा, पिता- पुत्र, माता-पिता, पति-पत्नी तथा स्वामी-सेवक आदि के पारस्परिक सम्बन्धों का स्पष्टीकरण करते हुए समाज के लिए ऐसे आदर्श-आचरण की कल्पना की है, जो सर्वाधिक स्तुत्य है। साहित्य के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण महान् है। उनका मत है कि साहित्य गंगा के समान सबका हित करता है

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।॥

(6) प्रकृति-चित्रण- तुलसी ने प्रकृति के अनेक मनोहारी दृश्य उपस्थित किए हैं। उन्होंने प्राय: आलम्बन, उद्दीपन, मानवीकरण, उपदेशात्मक और आलंकारिक रूप में ही प्रकृति का चित्रण किया है। तुलसी ने सभी ऋतुओं का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। मनोहारी प्रकृति-चित्रण पर आधारित एक उदाहरण देखिए-

बोलत जल कुक्कुट कल हंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा।।

(7) विविध रसों का प्रयोग- तुलसी के काव्य में विभिन्न रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है। यद्यपि उनके काव्य में शान्त रस प्रमुख है, तथापि श्रिंगार रस की अद्भुत छटा भी दर्शनीय है। श्रीराम और सीता के सौन्दर्य, मिलन तथा विरह के प्रसंगों में श्रृंगार का. उत्कृष्ट रूप उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त, करुण, रौद्र, बीभत्स, भयानक, वीर, अद्भुत एवं हास्य रसों का भी प्रयोग किया गया है। इस प्रकार तुलसी का काव्य सभी रसों का अद्भुत संगम है।

(৪) दार्शनिकता- तुलसी के काव्यों में दार्शनिक त्त्वों की व्याख्या उत्तम रूप में की गई है। ब्रह्म, जीव, जगत् और माया जैसे गूढ़ दार्शनिक पहलुओं पर कवि ने अपने विचार बड़े ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किए हैं। उनके अनुसार जीव ईश्वर का ही अंश है-

ईश्वर अंस जीव अबिनासी।

तुलसी के अनुसार जब जीव माया-जाल में फॅस जाता है तो वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। इसीलिए इन्होंने माया की निन्दा की है और जीव को प्रभु-भक्ति में लीन होने का सन्देश दिया है।

(ब) कलापक्षीय विशेषताएँ

(1) भाषा- तुलसी ने ब्रज एवं अवधी दोनों ही भाषाओ में रचनाएँ कीं। उनका महाकाव्य श्रीरामचरितमानस’ अवधी-भाषा में लिखा गया है। ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’ और ‘कवितावली’ में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा के प्रभाव में विशेष वृद्धि हुई है।

(2) शैली- तुलसी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों को अपनाया है। ‘श्रीरामचरितमानस’ में प्रबन्ध शैली, ‘विनयपत्रिका’ में मुक्तक शैली तथा ‘दोहावली’ में कबीर के समान प्रयुक्त की गई साखी शैली स्पष्ट देखी जा सकती है। यत्र-तत्र अन्य शैलियों का प्रयोग भी किया गया है।

(3) छन्द- तुलसी ने चौपाई, दोहा, सोगठा. कवित्त, सवैया, बरवै, छप्पय आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है।

(4) अलंकार- तुलसी के काव्य में अलंकारों का प्रयोग सहज स्वाभाविक रूप में किया गया है। इन्होंने अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, अनन्वय, श्लेष, सन्देह, असंगति एवं दृष्टान्त अलंकारों के प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में किए हैं।

(5) गेयता- तुलसी का काव्य गेय है। इनमें संगीतात्मकता के गुण सर्वत्र विद्यमान हैं।

 

हिन्दी-साहित्य में स्थान

वास्तव में तुलसी हिन्दी-साहित्य की महान् विभूति हैं। उन्होंने रामभक्ति की मन्दाकिनी प्रवाहित करके जन -जन का जीवन कृतार्थ कर दिया। उनके साहित्य में रामगुणगान, भक्ति-भावना, समन्वय, शिवम् की भावना आदि अनेक ऐसी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं, जो उन्हें महाकवि के आसन पर प्रतिष्ठित करती हैं। महाकवि हरिऔधजी ने सत्य ही लिखा है कि तुलसी की कला का स्पर्श प्राप्तकर स्वयं कविता ही सुशोभित हुई है-

कविता करके तुलसी न लसे।

कविता लसी पा तुलसी की कला।।

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