ज्वालामुखी का अर्थ और परिभाषा- उद्गार के कारण तथा ज्वालामुखी का विश्व वितरण
ज्वालामुखी का अर्थ और परिभाषा- उद्गार के कारण तथा ज्वालामुखी का विश्व वितरण
ज्वालामुखी भूपृष्ठ पर प्रकट होने वाला एक ऐसा छिद्र है जिसका सम्बन्ध भृगर्भ से होता है, जिससे तप्त लावा, पिघली हुई शैलें तथा अत्यन्त तप्त गैसे समय-समय पर निकलती रहती हैं। कुछ गैसें अत्यधिक ज्वलनशील होती हैं: जैसे-हाइड्रोजन। वायुमण्डल के सम्पर्क में आते ही ये गैसें बड़ी तीव्रता से जलने लगती हैं तथा इनसे लपटें निकलने लगती हैं। बास्तव में “ज्वालामुखी भूपटल के वे प्राकृतिक छिद्र हैं जिनसे होकर भूगर्भ से गर्म एवं तप्त लावा, गैसें तथा चट्टानों के टुकड़े आदि निकलते हैं।” भूगोलविदों ने इसे इस प्रकार परिभाषित किया है।
पी० जी० वारसेस्टर के अनुसार, “ज्वालामुखी वह क्रिया है जिसमें भूगर्भ के गर्म पदार्थ पृथ्वी के धरातल की ओर आने की कोशिश करते हैं ।”
वूलरिज एवं मॉरगन के अनुसार, “ज्वालामुखी वह क्रिया है जिसमें पृथ्वी की भीतरी गैसें और लावा आदि पदार्थ पृथ्वी के बाहर धरातल पर आकर स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं।
ज्वालामुखी क्रिया में प्रवाहित लावे से भूगर्भ में तथा इसके बाहर विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियों का निर्माण होता है। यदि लावा भूगर्भ में ही ठण्डा हो जाए तो उससे बैथोलिथ, फैकोलिथ, डाइक एवं सिल आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इसे ‘अन्तर्वर्ती क्रिया’ कहते हैं। भूपृष्ठ पर गर्म जल के सोते, गीजर, धुआरे और धरातलीय प्रवाह आदि आकृतियों का निर्माण होता है, जिसे ‘बहितीं क्रिया’ कहते हैं।
ज्वालामुखी उद्गार
ज्वालामुखी उद्गार के समय सबसे पहले एक तेज गड़गड़ाहट होती है। इससे धरातल पर भूकम्प के धक्के आने प्रारम्भ हो जाते हैं। ये धक्के बहुत समय तक रहते हैं। जिस स्थान पर ज्वालामुखी का प्रस्फुटन होने को होता है, वहाँ का तापमान कुछ समय पूर्व बढ़ जाता है। आस-पास के क्षेत्रों में नदियों का प्रवाह स्थिर हो जाता है। महासागरों के जल में गति होने लगती है। वास्तव में यह एक आकस्मिक घटना है जिसका पता लगाना बड़ा ही कठिन है।
ज्वालामुखी उद्गार के कारण
पी० जी० वारसेस्टर के अनुसार ज्वालामुखी क्रिया के निम्नलिखित कारण हैं
ज्वालामुखी उद्गार के कारण
- भूगर्भ में ताप की वृद्धि
- गैसों की उत्पत्ति
- ज्वालामुखी उद्गार से लावा
- बाहर निकलना
- दरारी उद्गार का संगठन
- लावा की उत्पत्ति
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भूगर्भ में ताप की वृद्धि
भूगर्भ के आन्तरिक भागों में नीचे जाने पर तापमान में निरन्तर वृद्धि होती जाती है। प्रत्येक 32 मीटर की गहराई पर 1° सेग्रे ताप की वृद्धि हो जाती है। साथ ही, रेडियो-सक्रिय तत्त्वों के द्वारा भी तापमान में वृद्धि होती है। धरातलीय दबाव द्वारा भी भूगर्भ के तापमान में वृद्धि होती है जिस कारण भूगर्भ की चट्टाने तरल अवस्था में परिणत हो जाती हैं।
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गैसों की उत्पत्ति
अधिकांशत: भूगर्भ में गैसों की उत्पत्ति का मुख्य कारण भूमि में जल का रिसाव है। इन गैसों में कार्बन डाइ-ऑक्साइड, हाइड्रोजन, सल्फर डाइ-ऑक्साइंड, अमोनिया आदि मुख्य हैं। यही गैसें ज्वालामुखी उद्भेदन के समय अपनी मुख्य भूमिका निभाती हैं। महासागरीय तटवर्ती भागों में महासागरों का जल नीचे रिसकर गैसों की उत्पत्ति करने में सहायक होता है। जब यह क्रिया लगातार जारी रहती है तो धरातल के अधिकांश क्षेत्र में दरारें पड़ जाती हैं। जब ये गैसे ऊपर निकलने का प्रयास करती हैं तो दरारों से होकर इनके साथ-साथ लावा, जलवाष्प, चट्टानी खण्ड आदि भी निकल पड़ते हैं तथा ज्वालामुखी का प्रस्फुटन हो जाता है।
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ज्वालामुखी उदूगार से लावा बाहुर निकलना
ज्वालामुखी उद्गार में लावे को ऊपर निकालने का श्रेय गैसों तथा जलवाष्प को है। गर्म, तप्त एवं तरल लावा अपने साथ अनेक गैसों का योग रखता है। इन गैसों के भारी दबाव से लावा धरातल पर आने की कोशिश करता है।
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दरारी उद्गार का संगठन
दरारा उद्गार से आशय ज्वालामुखी की उस क्रिया से है जिसमें अनेक प्रकार के पदार्थ तथा शैलों के टुकड़े होते हैं।
डेली के अनुसार, उद्गार के समय बेसाल्ट चट्टानों के कण ही अधिक पाये जाते हैं जो उच्च तापमान पर पिघलते हैं। ज्वालामुखी में बेसाल्ट पदार्थों की मात्रा90% से 95% तक पायी जाती है।
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लावा की उत्पत्ति
ज्वालामुखी उद्भेदन में लावा की उत्पत्ति का सर्वाधिक महत्त्व है । भूगर्भशास्त्रियों के मतानुसार, भूपटल के नीचे 55 किमी की गहराई में बेसाल्ट अथवा स्थायी मैग्मा भण्डार पाया जाता है। यह परत महासागरों की अपेक्षा महाद्वीपों के नीचे अधिक गहराई पर पायी जाती है। भृगर्भ के आन्तरिक भागों में अत्यधिक ताप एवं दबाव के कारण चट्टानें द्रव अवस्था में परिणत हो जाती हैं। पृथ्वी के कमजोर भागों में प्राय: दरारें पड़ जाती हैं और लावा बाहर आ जाता है।
ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ
ज्वालामुखी उद्गार में निम्नलिखित पदार्थ निकलते हैं
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गैस तथा जलवाध्प
ज्वालामुखी क्रिया में गैसों तथा जलवाष्प का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन गैसों में भी जलवाष्प सबसे अधिक होती है। जिसका प्रतिशत 60 से 90 तक होता है। इसके अतिरिक्त नाइट्रोजन, कार्बन डाइ-ऑक्साइड, सल्फर डाइ-ऑक्साइड आदि गैसें मुख्य स्थान रखती हैं, जो भूमि की परतों को तोड़ती हुई लावे को धरातल पर लाने में सहायता करती हैं।
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विखण्डित पदार्थ
इसमें छोटे-छोटे पदार्थों से लेकर शैलों के बड़े-बड़े टुकड़े तक होते हैं जो गैसों के साथ भूमि से आकाश की यात्रा करते हैं। तथा बाद में धरातल पर गिर जाते हैं। आकार में ये कुछ मिमी से लेकर कई मीटर तक के होते हैं। घनीभवन की क्रिया द्वारा आपस में रगड़ खाकर ये छोटे-छोटे टुकड़ों में परिवर्तित हो जाते हैं।
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मैग्मा या लावा पदार्थ
ज्वालामुखी उद्गार के समय बहुत-सा लावा द्रव के रूप में बाहर आता है तथा धरातल पर आते ही ठण्डा होकर ठास रूप में जम जाता है।
ज्वालामुखी की पेटियाँ या ज्वालामुखी का विश्व वितरण
विश्व में लगभग 500 ज्वालामुखी ऐसे हैं जो क्रियाशील हैं। महासागरों में भी कुछ सक्रिय ज्वालामुखी पाये जाते हैं। विश्व के मानचित्र पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि ज्वालामुखी एक निश्चित क्रम में पाये जाते हैं। अधिकांश ज्वालामुखी समुद्रतटीय भागों तथा द्वीपों पर पाये जाते हैं। इनका वितरण मेखला अथवा पेटियों के रूप में विकसित मिलता है। विश्व में ज्वालामुखी की निम्नलिखित पेटियाँ प्रमुख स्थान रखती हैं।
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परि-प्रशान्त महासागर तटीय पेटी
यह पेटी प्रशान्त महासागर तथा उसमें स्थित छोटे-बड़े द्वीपों के चारों ओर फैली हुई है। प्रशान्त महासागर में पूर्वी द्वीप समूह ज्वालामुखियों का प्रधान केन्द्र है, क्योंकि यहाँ अकेले जावा द्वीप में ज्वालामुखियों की संख्या 43 है। यह श्रृंखला यही से प्रारम्भ होती है जो फिलीपाइन, फारमूसा (ताईवान) , जापान तथा कमचटका प्रायद्वीप तक चली गयी है। यहाँ से क्यूराइल, अल्यूसियन द्वीपों पर होता हुई दूसरी ओर अलास्का तक पहुँचती है। अलास्का के पश्चिम से यह श्रृंखला कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका होती हुई दक्षिण की ओर चली जाती है। मेक्सिको तथा मध्य अमेरिका में ज्वालामुखी अधिक मिलते हैं। दक्षिणी अमेरिका के सुदूर दक्षिण तक यह पेटी अण्टार्कटिका महाद्वीप तक पहुँचती है तथा यहाँ से सोलोमन तथा न्यूगिनी द्वीपों पर होती हुई पुनः फिलीपाइन द्वीप में मिल जाती है। इस प्रकार इस प्रशान्त महासागरीय पेटी को ‘प्रशान्त का अग्निवृत्त’ (Fiery Ring of the Pacific) भी कहते हैं। इस पेटी में प्रत्येक प्रकार के ज्वालामुखी स्थित हैं। विश्व के कुल ज्वालामुखियों का 88% भाग इसी पेटी में स्थित है। इस पेटी में फ्यूजीयामा, कोटोपैक्सी, चिम्बोराजो आदि प्रसिद्ध ज्वालामुखी हैं।
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मध्य महाद्वीपीय पेटी
इस पेटी का विस्तार एशिया तथा यूरोप महाद्वीपों के बीच पूरब से पश्चिम नवीन मोड़दार पर्वतों के सहारे-सहारे है। यह पेटी आइसलैण्ड से प्रारम्भ होकर दक्षिण की ओर केमरून पर्वत (अफ्रीका) की ओर चली जाती है। केमरून पर्वत के समीप स्थित कनारी द्वीप से यह शाखा दो भागों-पश्चिम तथा पूरब-की ओर विभाजित हो जाती है। पश्चिम की ओर अरब में यह जोर्डन नदी की रिफ्ट घाटी और लाल सागर से होकर दक्षिण में अफ्रीका की रिफ्ट घाटी तक चली गयी है। पूर्वी भाग में स्पेन, इटली, तुर्की, सिसली, काकेशिया, आरमीनिया, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, म्यांमार तथा मलेशिया होती हुई। पूर्वी द्वीप समूह की ओर चली गयी है। इस पेटी में नवीन वलित पर्वतों में भू-उत्थानिक क्रियाएँ होने के कारण ज्वालामुखी क्रिया सक्रिय रहती है।
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अन्य महासागरीय पेटी
इस पेटी का विस्तार अन्ध महासागर के मध्य उत्तर से दक्षिण तक है। इसमें विश्व के लगभग 10% सक्रिय ज्वालामुखी पाये जाते हैं। उत्तर में यह पेटी आर्कटिक महासागर के स्पिट्सबर्जन से आरम्भ होकर दक्षिण की ओर जानमायेन, आइसलैण्ड, अजोर्स, सेण्टपॉल रॉक, ऐसेन्शियन द्वीप, सेण्ट हेलिना, त्रिस्तान-दा-कुन्हा तथा बुवेटद्वीप तक है। मध्य में यह पेटी पश्चिमी द्वीपसमूह से कमारी द्वीप तक है। इस पेटी में ज्वालामुखियों का वितरण क्रमबद्ध नहीं है। उत्तर में आइसलैण्ड क्षेत्र तथा दक्षिण में लेसर एण्टीलीस व दक्षिणी एण्टीलीस क्षेत्र ज्वालामुखी की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
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बिखरे ज्वालामुखी
उपर्युक्त तीनों पेटियों के अतिरिक्त महाद्वीपों, द्वीपों तथा महासागरों में भी कुछ ज्वालामुखी पाये जाते हैं। कुछ ज्वालामुखी अण्टार्कटिका महाद्वीप, हिन्द महासागर तथा मेडागास्कर के समीप कमोरो, मॉरीशस तथा रीयूनियन द्वीपों पर स्थित हैं। यहाँ प्रसुप्त एवं क्रियाशील ज्वालामुखी अधिक स्थित हैं।
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