साहित्य के क्षेत्र में पुनर्जागरण

साहित्य के क्षेत्र में पुनर्जागरण (Renaissance in the Field of Literature)

साहित्य के क्षेत्र में पुनर्जागरण (Renaissance in the Field of Literature)

पुनर्जागरण के तत्व मुख्य रूप से साहित्य, कला, विज्ञान और राजनीतिक के क्षेत्र में दिखाई देते हैं वैसे तो इतिहास के हर युग में साहित्य की रचना हुई, परन्तु पुनर्जागरण काल में जिस साहित्य की रचना हुई है, उसका अपना एक विश्ष्टि महत्त्व है। इससे पूर्व विद्वान् लोग केवल लेटिन अथवा यूनानी भाषा में ही लिखते आये थे। वे लोग बोलचाल की भाषाओं को असभ्य तथा पिछड़ी हुई मानते थे। इसलिये बोलचाल की भाषाओं में साहित्य का सृजन नहीं हो पाया। परन्तु पुनर्जागरण काल में बोलचाल की भाषाओं को सम्मान एवं गरिमा प्राप्त हुई। पश्चिमी यूरोप में बोलचाल की दो भाषाओं का विकास हुआ। एक थी ‘रोमन भाषा’ जिसके अन्तर्गत इटालियन, फ्रेंच, स्पेनिश और पुर्तगाली भाषाएँ आती हैं और दूसरी थी ‘जर्मनिक भाषा’ जिसमें जर्मन, अंग्रेजी, नाव्वेजियन, डच और स्वीडिश भाषाएँ सम्मिलित थीं। इन्हीं को हम देशज भाषाएँ भी कहते हैं। पुनर्जागरण काल के लेखक अब दैनिक बोलचाल की इन्हीं भाषाओं में साहित्य का सृजन करने लगे थे। बोलचाल की भाषा में साहित्य की रचना, पुनर्जांगरण की मुख्य विशेषता थी। दूसरी विशेषता थी विषय वस्तु की। मध्यकालीन साहित्य का मुख्य विषय धर्म था। अधिकांश रचनाएँ धार्मिक विषयों पर ही आधारित होती थीं और उन रचनाओं पर धर्म की गहरी छाप होती थी। परन्तु अब जो साहित्य लिखा गया उस पर धर्म के स्थान पर मानववादी विचारधारा का प्रभाव था और अधिकांश रचनाओं के लिए सांसरिक जीवन पर आधारित थे।’ यही बात इस युग के साहित्य को मध्ययुगीन साहित्य से अलग करती है।

इतालवी साहित्य- जिन इतालवी साहित्यकारों की रचनाओं में पुनर्जागरण के तत्व निहित हैं, उनमें दांते पेट्राक और बुकासियों के नाम अग्रणी हैं। बोलचाल की भाषा में साहित्य की रचना करने वाला पहला व्यक्ति दांते था । इटली के तुस्कानी प्रदेश में बोली जाने वाली ‘तुस्कान’ भाषा में दांते ने ‘ द डिवाइन कॉमेडी नामक महाकाव्य की रचना की। यही तुस्कानी भाषा आगे चलकर इटली की साहित्यिक भाषा बन गई। दांते न केवल समस्त इटालियन कवियों में ही श्रेष्ठ गिना जाता है, अपितु उसकी गणना विश्व के महान् कवियों में की जाती है।

दांते का जन्म 1265 ई. में फ्लोरेन्स नगर के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। उसने लगभग सभी विषयों – गणित, नक्षत्र-विज्ञान, धर्म, कला, साहित्य एवं संगीत का ज्ञान प्राप्त करने का प्रवास किया था युवावस्था में उसने अपने नगर की राजनीति में सक्रिय भाग लिया परन्तु राजनीति के दाँव-पेंचों ने उसे शोघ्र ही राजनीति से बाहर धकेल दिया। वह एक सच्चा देशभक्त था और इटली की राजनीतिक-एकता का स्वप्न देखा करता था । देश की एकता को छिन्न-भिन्न करने वाले सभी तत्वों एवं प्रवृत्तियों का वह कटु आलोचक था। 1302 ई. में उसे प्लोरेन्स नगर छोड़ना पड़ा और तब से अपना मृत्युपर्यन्त (1321 ई.) वह इधर-उधर भ्रमण करता रहा। यद्यपि दांते एक सामान्य व्यक्ति था, फिर भी वह काफी पढ़ा लिखा था। उसे प्राचीन साहित्य की पर्याप्त जानकारी थी और लेटिन भाषा पर उसका जबरदस्त नियंत्रण था। उसने अपनी गम्भीर रचनाएँ ‘द मोनरशिया’ और ‘द वर्गरी इलोक्योशिशिया’ लेटिन भाषा में ही लिखी थीं। परन्तु अपनी सर्वापरि रचना ‘द डिवाइन कॉमेडी’ की रचना उसने अपनी मातृभाषा में की थी। इस दृष्टि से दांते को पुनर्जागरण का संदेशवाहक कहा जाता है अन्यथा उस पर धर्म का गहरा प्रभाव था और उसके विचार भी मध्ययुगीन थे। ‘द डिवाइन कॉमेडी’ की विषयवस्तु मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति है आत्मा की नरक और स्वर्ग की काल्पनिक यात्रा का वृत्तान्त है। वास्तव में उसका ध्येय लोगों को नैतिक जीवन से विमुख करना था अपनी इस रचना के माध्यम से लोगों को मानवता, प्रेम, एकता, प्रकृति- प्रेम और देश- प्रेम का संदेश दिया। इसी प्रकार उसने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वतंत्रता और व्यक्तिवाद की भावना पर जोर दिया।

‘मानववाद के पिता’ पेट्राक का जन्म 1302 ई. में फ्लोरेन्स से कुछ दूर एरेजोगर में हुआ था। मानववादी आन्दोलन के प्रारम्भिक विचारकों में पेट्राक का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वह प्रेम गीतों का कवि था । लेटिन और यूनानी साहित्य के प्रति उसकी गहरी अभिरुचि थी और इन भाषाओं के पुराने हस्तलिखित ग्रन्थों को खोज निकालने तथा उनका संग्रह करने में उसने अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी। इसके लिए पुस्तकालयों की स्थापना का सिलसिला शुरू किया गया और थोड़े ही समय में यूरोप भर में अनेकों पुस्तकालय स्थापित हो गए। कविता के अतिरिंक्त प्राचीन लेखकों-होमर, सिसरो, लोवी आदि की रचनाओं में उसकी गहरी अभिरुचि थी। उसने इन प्राचीन लेखकों के साथ काल्पनिक पत्राचार किया। इन लेखकों के नाम लिखे पत्र उसकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुए। पेट्राक ने अपनी युवावस्था में इटालियन भाषा में रचनाएँ की थीं । परन्तु बाद में उन्होंने लेटिन भाषा में भी रचनाएँ कीं। उसने विख्यात रोमन कवि वर्जिल की शैली का अनुकरण करते हुए ‘अफ्रीका’ नामक एक लम्बा गीत लिखा जिसमें रोम के प्रसिद्ध सेनानायक सीपीओं के जीवन का अभूतपूर्व विवरण दिया गया है वैसे पेट्राक अपने ‘ सोनेटो’ (चौदह पंक्तियों का गीत) लिए प्रसिद्ध है और इन्हीं के द्वारा उसने इटालियन साहित्य को यूरोपीय साहित्य में सर्वश्रेष्ठ बना दिया था। उसकी रचनाओं में पुनर्जागरण के अनेक तत्व छिपे पड़े हैं। इस पर भी ईसाई धर्म के प्रति उसकी गहरी आस्था बनी रहीं। वस्तुत: उसने मानववाद और ईसाई धर्म के मध्य समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया था। उसने भौतिकवादियों की आलोचना की, आगस्टीन के विचारों का समर्थन किया, इतिहास – लेखन की नई पद्धति को जन्म दिया और राष्ट्रवाद की प्ररेणा दी । अपने इन्हीं कार्यों के कारण पुनर्जागरण के क्षेत्र में उसका योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

फ्रांसीसी साहित्य- फ्रांसीसी शासकों ने इतालवी पुनर्जागरण की कृतियों में पर्याप्त रुचि ली और अपने देश अपने देश में उनके अध्ययन की व्यवस्था की। इतालवी साहित्यकारों और चित्रकारों को आमन्त्रित करके उन्हें आदर दिया गया और फ्रांसीसी विद्वानों तथा कलाकारों को इटली जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। परिणामस्वरूप फ्रांसीसियों के सांसारिक दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया और मानववादी भावना का विकास हुआ।

पुनर्जागरण की भावना से प्रभावित होकर फ्रांस के कई लेखकों एवं कवियों ने अपनी मातृभाषा फ्रेंच में अपनी रचनाएँ लिखीं। ऐसे लोगों में फ्रायर्सट (1339-1410), विलो (1311-1404), रैवेलास ( 1494-1553) तथा मौत्ये (1533-1592) की रचनाएँ अधिक विख्यात हैं। फ्रायसर्ट ने फ्रेंच भाषा में काव्य तथा गद्य दोनों ही क्षेत्रों में रचनाएँ कीं। बिलो एक लोकप्रिय कवि हुआ। रैबेलास ने हास्य और व्यंग्य मिश्रित शैली का अनुसरण किया। उसने अधिकार-सम्पन्न लोगों तथा धार्मिक कट्टरता और अन्धविश्वासों की खिल्ली उड़ाई।

अंग्रेजी साहित्य- पुनर्जांगरण की लहर ने इंग्लैण्ड को भी प्रभावित किया और रानी एलिजाबेथ का युग (1558-1603) पुनर्जागरण का चरमोत्कर्ष काल माना जाता है। तेरहवीं सदी में इंग्लैण्ड के कुलीन लोग फ्रेंच भाषा में और सामान्य लोग सैक्सन भाषा में बोलते थे। परन्तु शीघ्र ही दोनों भाषाओं का महत्त्व कम होता गया इंग्लैण्ड में जर्मनिक तथा रोमन्स भाषाओं से प्रभावित एक नई भाषा ‘अग्रेजी ‘ का उद्य हुआ जिसने आगे चलकर साहित्य भाषा का रूप भी ले लिया। ‘विजन ऑफ पियर्स फ्लोमेन’ नामक रचना प्रारम्भिक अंग्रेजी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृतिं मानी जाती है। परन्तु अंग्रेजी साहित्य की सबसे महान् विभूति कवि चौसर ( 1340-1400) शरा। उसे अंग्रेजी कविता का पिता कहा जाता है। उसने अपने समय की प्रचलित भाषा का प्रयोग किया, जो ‘आंग्ल सैक्सन’ और  आधुनिक अंग्रेजी भाषा के बीच की कड़ी थी। चौसर की सुप्रसिद्ध रचना का नाम है-‘कैण्टरबरी टेल्स” इस रचना में कैण्टरबरी की यात्रा पर निकले लोगों के वास्तविक गुण-दोषों का विनोदपृर्ण वर्णन किया गया है। चौसर की रचनाओं में इंग्लैण्ड के मध्यकालीन समाज की छवि के दर्शन होते हैं। चौसर के बाद जॉन कोलेट ( 1466-1519) और टॉमस मूर (1478-1535) ने पुनर्जागरण की धारा को आगे बढ़ाया। जॉन कोलेट लंदन में स्थित ‘ सेंट पाल केथेडूल’ का डीन था। संत पाल के विचारों पर उनके आलोचनात्मक व्याख्यानों ने उसे काफी विख्यात बना दिया था। उसके व्याख्यान मानवाद में धार्मिक विश्वास के उत्तम उदाहरण माने जाते हैं। उसने अपने निजी खर्च से सेंट पाल में एक ग्रामर स्कूल स्थापित किया जिसमें नई शिक्षा की व्यवस्था की गई। टॉमस मूर अपने युग का एक अत्यधिक व्यस्त व्यक्ति था। वह एक विख्यात वकील तथा राजनैतिक नेता था और इंग्लैण्ड का लार्ड चांसलर भी रहा। उसने ‘यूटोपिया’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यूटोपिया का अर्थ है ‘कल्पित लोक’। यद्यपि मूर ने इस ग्रन्थ की रचना लेटिन भाषा में की थी परन्तु शीघ्र ही ंग्रेजी भाषा में इसका अनुवाद कर दिया गया। इस ग्रन्थ में मूर ने अपने युग के समाज और सरकार की हास्यपूर्ण आलोचना की । उसने प्लेटो का अनुकरण करते हुए अपनी रचना में एक आदर्श नगर का विवरण प्रस्तुत किया और अपने युग के इंग्लैण्ड के नगरों में पाई जाने वाली कुरूपता तथा क्रूरता का चित्र भी प्रस्तुत किया। मूर ईसाई धर्म का कट्टर अनुयायी थी। उसे चर्च में गहरी आस्था थी और इसके लिए उसे अपने प्राण भी खोने पड़े।

पुनर्जागरण काल का एक महान् कवि एडमण्ड स्पेन्सर ( 1552-1599) हुआ । उसने ‘ फेयरी क्वीन’ की रचना की। इस रचना में उसके नायक राजकुमार आर्थर की अच्छाइयों का वर्णन किया गया है। इस पूस्तक के सन्दर्भ में ओरगन तथा ऐपल ने लिखा है। “हर अच्छाई, पवित्रता संयम, सुचिता, मित्रता, न्याय और विनय, एक नाइट के रूप में उपस्थित होती हैं और अपने विरोधी दुर्गुण से लड़ती हैं।” दूसरी चीजों के साथ-साथ इस रचना में मध्य युग की खेल-प्रतियोगिता और तमाशों का भी वर्णन है।

गद्य लेखन के क्षेत्र में फ्रांसिस बेकन (1561-1626) हुआ। वह एक वकील, दरबारी, अधिकारोी और लेखक था। वह अपने युग का सर्वोत्तम निबन्धकार था और अपने असंख्य निबन्धों के माध्यम से उसने विज्ञान पर आधारित एक नई दार्शनिक विचारधारा को स्थापित करने का प्रयास किया। उसका कहना था कि लोगों को मध्यकालीन दर्शन का अध्ययन कम कर देना चाहिए और उसके स्थरान पर प्रकृति तथा भौतिक विज्ञानों के अध्ययन पर जोर देना चाहिए। अपने विचारों का प्रतिपादन उसने अपनी रचना ‘द एडवान्समेन्ट ऑफ लर्निंग’ (शिक्षा की उन्नति) में किया। अपनी एक अन्य रचना ‘दू न्यू अटलाण्टिस’ के माध्यम से बेकन ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में विज्ञान के अध्ययन को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

नाटक के क्षेत्र में क्रिस्टोफर मालों (1564-1593) ने भी काफी नाम कमाया। उसके नाटकों में ‘टेम्बूर लेन’, ‘द् ज्यू ऑफ माल्टा’ तथा ‘डॉक्टर फोस्टर’ बहुत प्रसिद्ध हुए। उसने मंच पर भाव प्रदर्शन की एक नई शैली का विकास किया। परन्तु इस क्षेत्र में पुनर्जागरण को इंग्लैण्ड की सबसे बड़ी देन विलियम शेक्सपियर (1564-1661) है। संयोगवश इस महान् साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन की प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। वह अपने युग का प्रसिद्ध नाटककार और कवि माना जाता है और आज संसार की अधिकांश भाषाओं में उसकी रचनाओं का अध्ययन किया जाता है। मानव जीवन के हर पहलू और स्थिति का अंकन करने में शेक्सपियर को जितनी सफलता मिली, उतनी शायद ही किसी को मिल पाई है। शेक्सपियर ने समाज के प्रत्येक वर्ग-साधु-संत, सेवक-सेविका , राजा-सम्राट, सैनिक-सेनापति, वैश्या-गायिका, भिखमंगा-निर्धन, हत्यारा-परमार्थी इत्यादि का अत्याधिक स्वाभाविक चित्रण किया है। उनके चित्रण में मानवी करुणा और मानवी स्वभाव का शानदार उल्लेख मिलता है। हर श्रेणी के नाटक में उसने पूर्ण दक्षता का परिचय दिया जैसे कि दुःखान्त नाटकों में ‘ओरथेलियो’, ‘मैकबेथ’ और ‘हेमलेट’; ऐतिहासिक नाटकों में ‘हेनरी चतुर्थ’ और ‘रिचार्ड द्वितीय’, ‘सुखान्त नाटकों’ में ‘द मेरी वाईवस ऑफ विण्डसर’, ‘ट्वेल्थ नाइट’ और ‘द टेम्पेस्ट’। शेक्सपियर के साहित्य में इस जीवन का चित्रण है। पारलौकिक जीवन में उसकी रुचि नहीं थी। ‘मेकबेथ’ में यह बताया है कि एक बुरे से बुरे व्यक्ति में भी कुछ न कुछ ‘मानवीय करुणा का दृध’ विद्यमान रहता है। ‘रोमियो-जूलियट’ के माध्यम से उसने प्रेमी लोगों की समस्याओं को उठाने का प्रयास किया तो ‘जूलियस सीजर’ के माध्यम से राजनीति में लिप्त अधिनायकों एवं दिशाहीन राजनीतिज्ञों का चित्र प्रस्तुत किया है। यह सत्य है कि शेक्सपियर के नाटक सभी युगों के लिये हैं; फिर भी शेक्सपियर अपने ही युग का व्यक्ति था। उसमें अपने देश के प्रति अगाध भक्ति और रानी के प्रति पर्याप्त सम्मान की भावना विद्यमान थी। वह कैथोलिक युग के प्रति श्रद्धा रखते हुए भी नये विचारों और आदर्शों तथा पुनर्जागरण की बात करता है और आने वाली पीढ़ियों के लिए महत्त्वपूर्ण संदेश छोड़ जाता है। वह निश्चय ही एक महान् विभूति था।

अन्य भाषाओं का साहित्य- स्पेन, पुर्तगाल, जर्मनी, हालैण्ड आदि देशों पर भी पुनर्जागरण का गहरा प्रभाव पड़ा और इन देशों की भाषाओं में भी महत्त्वपूर्ण मानववादी ग्रन्थों की रचना हुई । स्पेन में सर्वान्तेस (सरवेन्टीज) (1547-1616) हुआ, जिसने ‘डानक्विक्सोट’ नामक पुस्तक की रचना की। उसे स्पेन का एक महान् लेखक माना जाता है। इस रचना का नायक डानक्विक्सोट अपने आपको नाइट समझता है और दुनिया को सुधारने की कोशिश में दुर्गति का शिकार बनता है। दूसरे शब्दों में, इस रचना में अलभ्य स्वप्नों के लिए कशमकश करती हुई मानव जाति का चित्रण है। आपने ये उक्तियाँ अवश्य पढी या सुनी होंगी-‘हर कुत्ते का अपना दिन आता है।’ ‘खीर का प्रमाण खाने में है।’ और ‘एक से पंखों के पक्षी एक साथ रहते हैं।’ ये सभी सर्वान्तस की लेखनी से ही निकली हैं। स्पेनिश भाषा के अन्य विख्यात साहित्यकार हुए-लोपेड़ी वेगे और केल्डेन। लोपेड़ी वेगे ने स्पेन के रंगमंच को जन्म दिया। केल्डेन एक विख्यात कवि था।

पुर्तगाल में केमोन्स ने प्रसिद्धि प्राप्त की। उसने वास्को-डी – गामा की खोज पर ‘लूसियाड’ नामक महाकाव्य की रचना की। पुतंगाली साहित्य में लूसियाड का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जर्मनी में रूडोल्फ एग्री कोला और कोनार्ड केल्टस ने मानववादी विचारधारा को आगे बढ़ाया। एग्री कोला हेडलबर्ग विश्वविद्यालय में प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति का प्रोफेसर था। पुनर्जागरण की नई दिशा एवं विचारों की पर्याप्त जानकारी प्राप्त करने के लिये वह इटलो भी गया। जर्मनी के अन्य विद्वानों में रियूकलीन और मेलांकथन उल्लेखनीय हैं।

हालैण्ड देश रोटरडम नगर का निवासी टेंसिडेरियस इरैस्मस ( 1466-1536) अपने युग का सर्वप्रथम मानववादी था। प्रारम्भ में उसने मठ का जीवन पसन्द किया, परन्तु धीरे धीरे उसे पांडित्यवाद से अरुचि उत्पन्न हो गई और पुनर्जागरण की नई विचारधारा की ओर अग्रसर हुआ । अपनी विद्वता तथा शालीनता के कारण वह इतना अधिक लोकप्रिय हो गया कि यूरोप के सभी विश्वविद्यालय और राजवंशीय लोग उसे अपने यहाँ आमन्त्रित करने में गर्व का अनुभव करने लगे थे। इरैस्मस ने इंग्लैण्ड में बहुत से वर्ष व्यतीत किये और इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विद्वान् जॉन कोलेट और टॉमस मूर उसके घ्निष्ठ मित्र बन गये थे। इंरैस्मस ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अन्धविश्वासों, असहिष्णुता और अज्ञान के विरुद्ध सतत् संघर्ष किया। उसने विश्वशान्ति का समर्थन किया और निरंकुश अत्याचारी शासकों की आलोचना की। अपनी सुप्रसिद्ध कृति ‘मूर्खत्व की प्रशंसा’ (इन दी प्रेज ऑफ फाली) में उसने व्यंग्यपूर्ण शैली में ध्माधिकारियों का उपहास उड़ाया। इरैस्मस ने बाइबिल का शुद्ध अनुवाद भी किया।

राजनीतिक साहित्य- 12वीं और 13वीं सदियों में यूरोपीय चिन्तकों को एक अजीब समस्या का सामना करना पड़ा। बह समस्या थी-पोप की सत्ता सर्वोपरि है अथवा राजा की। पोप को राज्य में हस्तक्षेप का अधिकार है अथवा नहीं। मध्ययुग का राजनीतिक चिन्तन इसी बिन्दु के आसपास परिक्रमा करता रहा। इसका मूल कारण यह था कि अब राजा शक्तिशाली बनते जा रहे थे और पुनर्जागरण की भावना ने भी शक्तिशाली राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना पर जोर दिया था। व्यापार और उद्योग से समृद्ध बने मध्यम वर्ग ने भी राजाओं की शक्ति को सबल बनाने में पूरा-पूरा सहयोग दिया। ऐसी स्थिति में राजाओं ने पोप की सत्ता से पूर्ण स्वतन्त्र होने का प्रयास किया। राजाओं की इस नई स्थिति का चित्रण उस युग के लेखकों की कृतियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

राजनीतिक चिन्तकों में दांते का नाम सबसे पहले लिया जाता है उसने अपनी पुस्तक ‘द मोनाक्य्या’ में यह प्रतिपादित किया कि अधार्मिक विषयों में राजा की शक्ति को ही सर्वोच्च होना चाहिए। मस्सिग्लियो ने ‘डिफेन्डर ऑफ पीस’ की रचना की और उसने पोप के राजनीतिक हस्तक्षेप को अनुचित बताया उसके अनुसार शान्ति स्थापना के लिए राजा ही उत्तरदायी होना चाहिए। उसने यह प्रमाणित करने का प्रयास भी किया कि पोप इस प्रकार के राजनीतिक अधिकार कभी नहीं रहे थे। राजाओं की विकसित शक्ति का चित्रण उस युग के सुप्रसिद्ध लेखक मैक्यावली की कृतियों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। वह अपने युग का एक बड़ा राजनीतिक चिन्तक भी था। वह फ्लोरेन्स का निवासी था और कई राजाओं का सचिव रह चुका था। अत: उसे राजनीति के सूक्ष्म दाँवपेंचों का अध्ययन एवं मनन करने के पर्याप्त अवसर मिले। उसकी कृतियों में ‘द प्रिन्स’, ‘डिस्कोसिर्स ऑफ लिपि’ तथा ‘हिस्ट्री ऑफ फ्लोरेन्स’ अधिक प्रसिद्ध हैं। द प्रिन्स’ की रचना में ठसे लगभग पन्द्रह वर्ष का समय लगा और इसका प्रकाशन उसकी मृत्यु के पाँच वर्ष बाद हुआ। मैक्यावली का मानना था कि धर्म राज्यों की शक्ति को निरबल बनाता है। अत: राजनीति को धर्म के प्रभाव से दूर रखना चाहिए। क्योंकि धर्म के अनुसार झूठ बोलना, धोखा देना आदि बातें अनैतिक हैं जबकि राज्य की सुरक्षा एवं उसके हित में ये बातें अति आवश्यक हैं । उसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर राजाओं को अपना वायदा तोड़ने में जरा भी नहीं हिचकिचना चाहिए।

इंग्लैण्ड का हॉब्स भी एक प्रसिद्ध राजनीतिक चिन्तक तथा दार्शनिक था। उसने भौतिकवादी दर्शन का प्रतिपादन क्रिया। उसके सृष्टि सर्वथा भौतिक पदार्थ है और इसे वह गत्यात्मक भूत मात्र मानता था। उसके अनुसार इसमें किसी अलौकिक सत्ता या आध्यात्मिकता का स्थान नहीं है । हॉब्स ने राजनीति विज्ञान पर भी ‘लेवियाथाँ’ नामक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में उसने राज्य की उत्पत्ति का नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया। हॉब्स राज्य की सार्वभौमिकता तथा राज्य के सर्वोपरि नियन्त्रण तथा अधिकार में विश्वास रखता था।

उपर्युक्त लेखकों की रचनाओं का सामूहिक प्रभाव यह पड़ा कि लोगों में प्राचीन यूनानी तथा लेटिन ग्रन्थों का अध्ययन करना तथा मानववादी विचारधारा को समझने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। इसके साथ ही साथ लोगों का लौकिक-पारलौकिक जीवन से सम्बन्धित मध्ययुगीन मान्यताओं से विश्वास उठने लगा। पुनर्जागरण के कारण अब लोगों ने तर्क के आधार पर नई मान्यताओं को प्रतिष्ठित किया।

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