कला के क्षेत्र में पुनर्जागरण (Renaissance in the field of Art)
कला के क्षेत्र में पुनर्जागरण (Renaissance in the field of Art)
मध्ययुगीन में कला का अपना स्वतन्त्र एवं पृथक् स्थान नहीं था वह धर्म के साथ जुड़ी हुई थी। पुनर्जागरण काल में कलाकार धार्मिक बन्धनों से मक्त होकर यथार्थवादी बन गया। अब धर्म का स्थान सांसरिकता ने, बैराग्य का स्थान सौन्दर्य ने और विरक्ति का स्थान आसक्ति ने ले लिया। यदि पुनर्जागरण को मध्ययुगीन परम्परा तथा नियमों के विरुद्ध एक विद्रोह मान लिया जाए तो इस विद्रोह की सर्वाधिक झलक कला के क्षेत्र में देखने को मिलती है।
स्थापत्य कला- मध्ययुग में स्थापत्य कला के क्षेत्र में गोथिक शैली का बोलबाला रहा था और यूरोप में इसी शैली के आधार पर अधिकांश भवनों का निर्माण हुआ था। परन्तु पुनर्जागरण काल में प्राचीन स्थापत्य कला के प्रति आकर्षण बढ़ा और रोमन, यूनानी तथा अरबी स्थापत्य शैलियों का समन्वय करके एक नई शैली विकसित की गई। इस नवीन शैली की मुख्य विशेषताएँ थीं-शृंगार, सज्जा, डिजाइन, विशालता और भव्यता। इस शैली में सजावट और आकृति को विशेष महत्त्व दिया जाता था इसके अलावा गोल मेहराबों का उपयोग किया जाने लगा। डोरिक, आयोनिक और कोरिन्थियन शैली के शीर्ष भागों का उपयोग चर्च तथा सार्वजनिक भवनों में किया जाने लगा।
इटली के धनी परिवारों ने इस नवीन शैली को संरक्षण प्रदान किया। ऐसे लोगों में फ्लोरेन्स के लोरेन्जो द मेडिसी का नाम विशेष विख्यात है। उसने एक विशाल तथा सुन्दर उद्यान बनवाया तथा उच्च कोटि की मूर्तियों का संग्रह किया। उसका महल मूल्यवान सजावटी वस्तुओं से भरा पड़ा था । लोरेन्ज ने फ्लोरेन्स के बहुत से कलाकारों को भी संरक्षण दिया। फ्लोरेन्स में नवीन स्थापत्य शैली के विकास में फिलियों बूनेलेस्की का योगदान भी महत्त्वपूर्ण था। उसने इटली तथा आसपास के क्षेत्रों में घूम-घूम कर प्राचीन रोमन मन्दिरों, नाट्यशालाओं तथा अन्य भवनों के अवशेषों का अध्ययन किया और रोमन स्थापत्य शैली की विशेषताओं के आधार पर नवीन शैली का विकास किया। उसकी नई शैली में मेहराबों तथा स्तम्भों की प्रधानता थी। अब नुकीले मेहराबों के स्थान पर गोल मेहराबों का निर्माण किया जाने लगा। भवनों की ऊँचाई को भी कम किया जाने लगा और गुम्बदों को प्रधानता दी जाने लगी। फ्लोरेन्स के गिरजाघर का विशाल गुम्बद ब्रुनेलेस्की की ही कृति है।
पुनर्जागरण काल की स्थापत्य कला का सर्वोत्कृष्ट नमूना रोम में निर्मित सन्त पीटर का नया गिरजा है । ईसाईं जगत् के इस पवित्र स्मारक को नये सिरे से क्लासिकल शैली में निर्मित कराने सम्बन्धी पोप के निर्णय में पुनर्जागरण की मानववादी तथा क्लासिकल भावना के प्रभाव की गहराई को पहचाना जा सकता है। गिरजे का विशाल एवं भव्य गुम्बद पुनर्जागरण कालीन कला की अमूल्य देन है ।
इटली के बाद इस नवीन शैली का प्रसार पश्चिमी यूरोप के देशों में हुआ। फ्रांस के सम्राट फ्रांसिस प्रथम ने इसे प्रश्रय दिया और इटली के बहुत से कलावन्तों को अपने यहाँ आमन्त्रित किया। इन लोगों की निगरानी में निर्मित पेरिस का लुब्रे का प्रसाद’ अत्यधिक भव्य है। यहाँ सफेद तथा नीले रंग का टेराकोट कार्य देखते ही बनता है। जर्मनी स्पेन में भी इस शैली का प्रसार हुआ। स्पेन के ‘इस्कोरियल प्रसाद’ पर इस शैली का जबरदस्त प्रभाव देखने को मिलता है। पश्चिमी यूरोप के कलावन्तों में डच वास्तुकार क्लाउस शलूटर का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ब्रगेण्डी के ड्यूक ने उसे संरक्षण प्रदान किया था। उसकी देखरेख में निर्मित ‘बेल ऑफ मोसेज’ तथा ब्रगेण्डी के शासकों की समाधियों पर उत्कीर्ण मूर्तिकला की दृष्टि से अनुपम मानी जाती हैं। इंग्लैण्ड में इस शैली का प्रसार थोड़ा बाद में हुआ। 1669 ई. में इनिगोजन्स ने ‘ह्लाइट हॉल’ में जिस दावतघर का निर्माण करवाया वह एक आश्चर्यजनक कृति मानी जाती हैं। इस प्रकार, लन्दन में क्रिस्टोफर की देखरेख में निर्मित ‘सन्तपाल का गिरजा’ भी एक भव्य कृति है।
चित्रकला– पुनर्जागरण काल की चित्रकला के क्षेत्रमें भी इटली के चित्रकारों ने अन्य देशों के चित्रकारों का मार्ग प्रशस्त किया। यह सही है कि पुनर्जागरण काल के प्रारम्भिक दिनों में चित्रकला के विषय सामान्यत: धार्मिक ही रहे, परन्तु अब उनका निर्माण केवल चर्च के लिए हो नहीं किया जाता था अब मेडोना, सन्तों, बाइबिल के दृश्यों के साथ-साथ प्राचीन गाथाओं के नायक-नायिकाओं और यूनानी तथा रोमन साहित्य के सुन्दर दृश्यों के चित्र भी बनने लगे। जो थोड़े बहुत धार्मिक चित्र बनाये जाते थे वे भी गिरजाघरों के लिए न बनाये जाकर व्यक्तिगत भवनों की सजावट के लिये बनाये जाते थे। चौदहवीं सदी के शुरू तक अधिकांश चित्रकार बाइजेन्टाइन कला से चिपके रहे थे। बाइजेन्टाइन कला में आकृति, डिजाइन और अंकन में परम्परावादी शैली पर अधिक ध्यान दिया जाता था और चित्रों के विषय पूर्णत: धार्मिक होते थे। चित्रकला का क्षेत्र भी सीमित था और उसका उपयोग गिरजाघरों की दीवारों को सजाने के लिये किया जाता था।
सर्वप्रथम जियटो (1336 ई. के आसपास) ने परम्परागत बाइजेन्टाइन शैली के स्थान पर प्राकृतिक क्षेत्र को अपनाकर चित्रकला को नई दिशा प्रदान की। यद्यपि जियटो में प्राकृतिक चित्र बनाने की कला में थोड़ी कमी रह गईं थी और उसके चित्रों की पृष्ठभूमि भी प्रभावशाली नहीं बन पाई थी; फिर भी उनके चित्रों ने उस युग के अनेक चित्रकार को प्रेरणा दी। पुनर्जागरण काल के चित्रकारों ने मानव शरीर का सूक्ष्म अध्ययन किया और यह जानकारी हासिल की कि मनुष्य के शरीर की पेशियाँ और जोड़ कैसे उभरते हैं । इसलिये वे अपनी कलाकृतियों को अधिक सजीव बना सके। इसके अलावा उन्होंने धार्मिक दृश्यों के स्थान पर सामान्य दृश्यों तथा यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर जोर दिया था।
इस नई शैली के चित्रकारों में फ्रान्जेलिको (1378-1445) और मेशेशियो (1401-1429) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। फ्रान्जेलिको एक प्रतिभासम्पन्न संन्यासी था और यद्यपि उसकी शैली पर जियटो का प्रभाव था; फिर भी, उसने तकनीकी दृष्टि से इस शैली का विकास किया था । उसने छोटे गिरजों और मठों के लिए बहुत से भित्ति-चित्र बनाये। पोप ने भी उसे वेटिकन के कुछ भागों को सजाने के मैये रॉम आमंत्रित किया था। यद्पि उसने धार्मिक विषयवस्तु को लेकर ही चित्र बनाये थे, परन्तु उसकी गहन आत्मिक खूबियों के कारण वे बेजोड़ माने जाते हैं। मेशेशियों एक यथार्थवादी कलाकार था। उसने अपने चित्रों में आकृति तथा रंगों के सम्बन्ध में सदा ही प्रकृति का अनुसरण किया था। पन्द्रहवों सदी के अन्त में बोटीशैली (1444-1510) हुआ जिसने विविध विषय-वस्तु को लेकर बेजोड़ चित्र बनाये। उपर्युक्त सभी चित्रकार फ्लोरेन्स नगर के थे अत: उनकी चित्रकला शैली को ‘फ्लोरेन्स शैली’ कहा जाने लगा। इटली में ‘फ्लोरेन्स शैली’ के अलावा अन्य शैलियों का भी विकास हुआ था, जिनमें ‘उम्ब्रीयन शैली’ और ‘वेनेशियन शैली’ मुख्य थीं। उम्ब्रीयन शैली का प्रमुख चित्रकार पीएट्रो पेरूजिनो (1446-1524) सर्वाधिक विख्यात है। बेनेशियन शैली में टिटियन ( 1477-1576 ) काफी लोकप्रिय रहा।
लियोनार्दो द विंसी (1452-1519) – लियोनादों बहुमुखी प्रतिभा का व्यक्ति था। वह गणित, शरीर-रचना शास्त्र, भूगर्भ शास्त्र का अच्छा ज्ञाता था। वह एक कुशल इन्जीनियर, वैज्ञानिक, आविष्कारक और सैनिक भी था परन्तु एक चित्रकार के रूप में उसे सर्वाधिक लोकप्रियता तथा सम्मान मिला था उसने अपने जीवनकाल में असंख्य चित्र बनाये होंगे परन्तु उनमें केवल 17 चित्र प्राप्त हैं जिनमें उसके अधूरे चित्र भी सम्मिलित हैं। उसके चित्रों को देखकर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि एक चित्रकार भी बाह्य दृश्य या मानव आकृति का कैमरे की भाँति कितना सही अंकन कर सकता है। उसके उपलब्ध चित्रों में ‘मोनालिसा’ और ‘लास्ट सपर’ (अंतिम भोजन ) सर्वश्रेष्ठ चित्र हैं और उन्हें विश्व के सर्वश्रेष्ठ चित्रों की पंक्ति में रखा जा सकता है । लियोनार्दों की शैली विविध रूप से विकसित थी और उसमें मौलिकता का पुट था । ‘मोनालिसा’ का चित्र अत्यन्त सुन्दर और मोहक भावों से युक्त है। मोनालिसा की मुस्कान इतनी मधुर है कि वह मानवी न लगकर दैवी लगती है। ‘लास्ट सपर’ सेन्ट मेरिया के गिरजाघर (मिलान) की भिति पर चित्रित है। शान्त वातावरण में महात्मा ईसा को अपने अनुयायियों के साथ एक मेज पर आखिरी भोजन के समय बैठा दिखाया गया है। इस अवसर पर ईसा ने अपने अनुयायियों से कहा था कि यहाँ पर उपस्थित लोगों में से ही एक मुझे धोखा देगा। ईसा ने चेहरे पर शान्ति का भाव है परन्तु उनके शिष्य हतप्रभ दिखाई देते हैं और एक व्यक्ति के चेहरे पर अपराध की झलक दिखाई देती हैं। उसकी चित्रकला की मुख्य विशेषताएँ हैं- प्रकाश और छाया, रंगों का चयन तथा शारीरिक अंगों का सबल प्रदर्शन। अपने चित्रों को अधिक आकर्षक बनाने के लिए उसने रंगों और चित्रण की विधियों के समन्वय में प्रयोग किये। उसने मानव शरीर का बहुत ही मनोयोग के साथ अध्ययन किया और मानव को विभिन्न मुद्राओं में चित्रित किया। वस्तुत: वह पुनर्जागरण काल का एक महान् कलाकार था।
माइकल एंजेलो (1475-1564)- इटली का दूसरा बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न चित्रकार माइकल एंजेलो था एंजेलो अपने आपको मूलत: एक मूर्तिकार मानता था। परन्तु वह एक श्रेष्ठ चित्रकार भी था उसकी कृतियों में जहाँ एक तरफ मध्यकालीन धार्मिक विश्वास की झलक देखने को मिलती है, तो साथ में पुनर्जागरण की सभी विशेषताएँ भी परिलक्षित होती हैं। अपनी मृतियों तथा चित्रों को यथार्थवादी रूप देने के लिए उसने भी मानव शरीर विज्ञान का गहन अध्ययन किया था। उसका मानना था कि मनुष्य सृष्टि की सुन्दर अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम नमूना है। उन दिनों रोम में पोप, पीटर का दूसरा कैथेडल बनवा रहा था उसके निमन्त्रण पर एंजेलो रोम गया। इस केथेड्रल के गुम्बद की रूपरेखा एंजेलो ने ही बनाई थी और विद्वान् लोग इस गुम्बद को दुनिया की आश्चर्यजनक कृतियों में मानते हैं। एंजेलो ने अनेक मूर्तियों का निर्माण किया जिसमें दो बहुत प्रसिद्ध हैं। एक पेंता जिसका निर्माण रोम में किया गया था और उसे सेन्ट पीटर गिरजाघर के मुख्य द्वार पर रखा गया। उसकी दूसरी कृति है डेविड की विशाल मूर्ति जिसे फ्लोरेन्स के नागरिंकों ने बनवाई थी। चित्रकला के क्षेत्र में भी उसका योगदान काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता हैं । पोप ने उसे वेटिकन के सिस्टाइन गिरजाघर की छत को चित्रित करने का आदेश दिया। इस काम को उसने साढ़े चार साल की अत्यधिक परिश्रमयुक्त साधना के साथ पूरा किया। इसके द्वारा छत पर बनाये गये चित्र आज भी लोगों के लिए विस्मय की बस्तु बने हुए हैं। इन चित्रों में उसके सर्वश्रेष्ठ चित्र का नाम हैं- ‘लास्ट जजमेन्ट’। यह चित्र घोर निराशा और वेदना की अभिव्यक्ति करता है। अनेक आकृतियों वाले इस विशाल चित्र में जीवन के अनेक रूप अपने मूल स्वरूप में विद्यमान हैं। महात्मा ईसा के अतिरिक्त अन्य सभी व्यक्ति भय और आतंक से ग्रस्त हैं और लगता है कि उन्हें भगवान से भी दया की कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती।
राफेल (1483-1520 )- राफेल एक कवि, चित्रकार और वास्तुकार था। उसकी कृतियों पर लियोना्दो और एंजेलो-दोनों का प्रभाव पड़ा था। उसके चित्रों में दोनों की शैलियों का समन्वय दिखाई देता है । राफेल ने सन्त पौटर के कैथेडुल की रूपरेखा तैयार की थी। परन्तु उसकी ख्याति उसके चित्रों के कारण है। 17 वर्ष की आयु से ही वह अच्छे चित्र बनाने लग गया था। उसके चित्रों की मुख्य विशेषताएँ थीं- आकृतियों में सहजता, सजीवता तथा चेहरों पर माधुर्य और कोमलता। उसके चित्रों में मातृत्व, वात्सल्य और भक्ति की प्रधानता देखने को मिलती है। उसने मोडेना और शिशु के पचास से भी अधिक महान् चित्र और अनेक पोटरेट तैयार किये थे। कोलोना मोडेना’ (सिस्टाइन मोडेना) नामक चित्र उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है।
अन्य कलाकार- पोट्रेट बनाने वाले चित्रकारों में इटली का तिशन ( 1477-1576) सर्वोपरि था। वह वेनिस का निवासी था और वृद्धावस्था में भी कला की सेवा करता रहा। उसने पोपों, पादरियों, सामन्तों और सम्पन्न परिवारों की महिलाओं के चेहरे (पोट्रेट) बनाये थे। वह हल्के रंगों का प्रयोग अधिक करता था और इस क्षेत्र में उसकी तुलना में अन्य कोई कलाकार नहीं पहुँचा पाया। 15वीं सदी के चित्रकार अपने रंगों को घोलने के लिए अण्डे की सफेदी का प्रयोग किया करते थे। बेल्जियम के बान तथा आइक बन्धुओं हर्बर्ट और जॉन ने रंगों को मिश्रिण करने की एक नवीन पद्धति ढूँढ़कर चित्रकला को एक नया मोड़ दे दिया। वे रंगों के मिश्रण के लिए तेल का प्रयोग करने लगे जिससे चित्रों का रूप और अधिक निखर गया। फ्रांस हाल्स (1505-1556) की गणना भी विश्व के महान् पोट्रेट चित्रकारों में की जाती है। उसने सामन्तों के बहुत से पोट्रेट बनाये थे। वह अपने चित्रों के विषय की खोज में प्रायः शराबखानों तथा अन्धेरी सड़कों का चक्कर लगाया करता था। रेम्ब्रा वान रिन (1606-1609) बेल्जियम का एक अन्य प्रमुख चित्रकार था। वह रेखाचित्रों के लिए अधिक विख्यात है। रंगों, प्रकाश तथा छाया के अंकन में उसे विशेष निपुणता प्राप्त थी। स्पेन में टीगोवेलेस कैथ (1599-1660) हुआ जिसने राजवंशी लोगों के अनेक आकर्षक पोट्रेट बनाये। जर्मनी के ड्योरार तथा हैन्स दाल्बीन ने लकड़ी तथा ताँबे के पत्तरों पर आश्चर्यजनक चित्रों को अंकित किया।
मूर्तिकला- पुनर्जागरण ने मूर्ति-निर्माण कला को भी प्रभावित किया। मूर्ति निर्माण के क्षेत्र में फ्लोरेन्स के मूर्तिकार दोनोतेलो (1386-1466) ने एक नई शैली का विकास किया। उसने प्राचीन यूनानी तथा रोमन मूर्तियों का गहन अध्ययन किया था। उसके द्वारा निर्मित मूर्तियों का विषय मानव जीवन था जबकि मध्यकाल के मूर्तिकारों ने धर्म को आधार माना था। वे लोग गिरजाघरों की सजावट के लिए साधु-सन्तों की मूर्तियाँ बनाते थे परन्तु पुनर्जागरण से प्रभावित मूर्तिकारों ने अब मानव-जीवन से ही विषय का चयन किया। अब खेलते हुए बच्चों की अथवा सामान्य मनुष्य के चेहरों की भी मूर्तियाँ बनाई जाने लगीं। दोनोतेलो द्वारा निर्मित वेनिस की सन्त मार्क की आदमकद मूर्ति उस काल की सर्वश्रेष्ठ कला-कृति मानी जाती है। उस युग का दूसरा प्रमुख मूर्तिकार लोरेंजो गिवर्टी (1378-1455) था। फ्लोरेन्स की बैप्टिस्ट्री (धर्म संस्कार बपतिस्मा का भवन) के दो दरबाजों पर जो अद्भुत नक्काशी का काम किया हुआ है, वह गिवर्टी की ही देन है। दरवाजे काँसे के हैं और उनके दस लम्बे फलकों पर नक्काशी की गई है। इस काम को पूरा करने में गिवर्टी को बीस वर्ष का समय लगा था । एंजेलो की मूर्तिकला की चर्चा पिछले पृष्ठों में की जा चुकी है।
वास्तुशिल्प के क्षेत्र में पुनर्जागरण ने ‘वास्तुविद’ ( आर्किटेक्ट ) के रूप में एक नये कलावन्त को जन्म दिया।’ उसका काम था-भवनों का डिजाइन तैयार करना। वास्तविक निर्माण कार्य अन्य कारीगर लोग करते थे। इससे लोगों को अपने मनपसन्द आवास बनाने की सुविधा मिल गई। उस युग के भवनों में यूनानी स्तम्भों, अलंकारयुक्त शिलापट्टों, रोमन मेहराबों और गुम्बदों का अधिक प्रयोग किया जाता था ।
संगीत- पुनर्जागरण काल में संगीत के क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रगति हुई। मध्यकालीन वाद्ययन्त्रों के स्थान पर नये-नये वाद्ययन्त्रों का निर्माण किंया गया जिनमें हाप््सीकार्ड और वायलिन मुख्य थे हाप्सींकार्ड पियानो का पूर्व रूप था। इस युग की दूसरी विशेषता स्वर संगीत की प्रधानता थी। पुनर्जागरण के प्रभाव से धार्मिक तथा लौकिक संगीत का भेदभाव समाप्त हो गया। संगीत के क्षेत्र में पुनर्जागरण ने एक गायक की ध्वनियों द्वारा सम्पादित की जाने वाली दो प्रकार की लम्बी नाटकीय रचनाओं को जन्म दिया। एक नाम था औरतोरिये’ ( परिकोर्तन) और दूसरे का नाम था ‘ओपेरा’। औरतोरिये का विषय विशुद्ध धार्मिक होता था और उसमें कार्य व्यापार वेशभूषा तथा दृश्यावली का प्रयोग नहीं किया जाता था। ओपेरा आमतौर पर सांसरिक विषयों से सम्बन्धित होता था। इसमें अभिनय, वेशभूषा, गायन, दृश्यवाली आदि का उपयोग किया जाता था। सबसे पहला ओपेरा 1594 ई. में प्रस्तुत किया गया था। इस युग छोटे-छोटे प्रेम गीतों का प्रचार बढ़ा। ‘मास्किनदस’ इस युग का प्रसिद्ध संगीतज्ञ हुआ। गिओवानी पालेस्ट्राइना भी एक सिंद्ध संगीत-रचयिता हुआ। पालेस्ट्राइना ने सामूहिक संगीत पर एक पुस्तक भी लिखी जो 1554 ई. में प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तक इतनी अच्छी एवं उपयोगी सिद्ध हुई कि पश्चिमी संसार में आज भी इसका महत्त्व बना है।
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