पं. जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री

पं. जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (Pt. Jawaharlal Nehru First Prime Minister of Independent India)

पं. जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (Pt. Jawaharlal Nehru First Prime Minister of Independent India)

स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू केवल एक राजनीतिज्ञ ही नहीं थे, अपितु वे एक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न महान पुरुष थे। वे एक अनूठे चिंतक भी थे। मानवीय संवेदताओं से भरपूर यह व्यक्तित्व भारत के लोगों का ही नहीं, दुनिया के लोगों का भी अभूतपूर्व प्यार और सम्मान पा सका भारत ने तो उन्हें राष्ट्र के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलकृत किया। विश्व ने उन्हें एक महान राजनीतिज्ञ एवं मानवतावादी माना। भारतीय क्षितिज पर एक लम्बे समय तक अपनी आभा फैलाए हुए यह नक्षत्र स्वतंत्र चिंतन के क्षेत्र में भी अपनी अमिट छाप छोड़ गया । भारतीय राजनीतिक एवं सामाजिक चिंतन के इतिहास में उन्होंने अपना अमर स्थान बना लिया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण उनके चिंतन की विशिष्टता थी।

देश रत्न पं. जवाहरलाल नेहरू ने 14 नवम्चर, 1889 को पं. मोतीलाल नेहरू के पुत्र के रूप में जन्म लिया। 13 वर्ष की आयु में ही वे थियोसोफिकल सोसाइटी के सदस्य बन गए। 15 वर्ष की आयु में ही उन्हें इंग्लैण्ड भेजा गया, जहाँ पर उनहोंने हेरो स्कूल एवं ट्रिनिरी कॉलिज केम्ब्रिज में अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी की वे मेरेडिथ के राजनीतिक चिंतन से बहुत प्रभावित हुए। भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में बैरिस्टर के रूप में अपनी प्रेक्टिस प्रारम्भ कर दी। इसी समय वे एनी बीसेण्ट के सम्पर्क में आए और उन्होने होमरूल लीग में भाग लिया। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में उनकी मुलाकात गांधीजी से हुई। उसी वर्ष उनका विवाह हो गया और 1917 में उन्हें पुत्री की प्राप्ति हुई जोकि इंदिरा प्रियदर्शनी के नाम से उनके परिवार को सुशोभित करती रही और बाद में लम्बे समय तक भारत की प्रधानमंत्री रही।

1918 में उनको होमरूल लीग का सेक्रेटरी चुन लिया गया । वह 1921 में असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण जेल गए । 1923 में आल इंडिया कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी चुने गए और बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष भी उन्हीं की अध्यक्षता में 1929 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव को पारित किया। उसके पश्चात के अनेक आन्दोलनों में नेहरू सक्रिय रूप से भाग लेते रहे। वह भारतीय राष्ट्रीरीय काग्रेस के कई बार अध्यक्ष चुने गए और 27 मई 1964 को उनकी मृत्यु हो गई । मृत्यु होने से पूर्व तक वे प्रधानमंत्री पद पर बने रहे।

आधुनिक भारत पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रति पर्याप्त रूप से ऋणी है। महात्मा गांधीने भारत को अपने को समझना सिखाया । नेहरू ने अपने को ही नहीं, अपितु दूसरों को भी समझना सिखाया । गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा जाता है तो नेहरू जी को आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है। उन्होंने भारत में लोकतंत्र को सबल बनाने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया और वे निरन्तर सभी को मानवीय प्रतिष्ठा और समानता प्रदान करने के लिए अथक प्रयास करते रहे। उन्होंने भारतीय जनमानस को राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ठहराव के दलदल से बाहर निकाला और उनहें प्रगतिशील मार्ग पर अग्रसर किया आर्थिक क्षेत्र में तो उनका योगदान अत्यन्त ही विशिष्ट है। उनके द्वारा प्रारम्भ पंचवर्षीय योजनाओं जिनको लोकतंत्र और समाजवाद की भावना से क्रियान्वित किया गया ने भारत की शक्ल ही बदल दी। उन्होंने समाज को समाजवादी ढांचा (Socialistic Pattern of Society) की अवधारणा को सार्थकता प्रदान की | उन्होंने भारत के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर को ऊँचा उठाया और राष्ट्रों के समुदाय में उन्होंने भारत को प्रतिष्ठा का स्थान दिलाया।

नेहरू ने विश्व को शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व एवं गुट निरपेक्ष के महत्वपूर्ण विचार दिये। उन्होंने उपनिवेशवाद, नव उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, रंगभेद एवं किसी भी प्रकार के अन्याय के विरूद्ध अपनी आवाज उठायी और अपने आजीवन काल में उन्हें एशिया. अफ्रीका और लेटिन अमरीका के लगभग 40 देशों को औपनिवेशिक शासन से मुक्त होने को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने समस्त जीवन को विश्व के विभिन्न देशों के बीच मैत्री और सहयोग को सबल बनाने की लड़ाई में लगाया। यही कारण था कि समस्त विश्व उन्हें मानवता का मित्र मानता था। उन्होंने ध्येयनिष्ठ जीवन बिताया और अन्तिम सांस तक उस ध्येय को पूरा करने का प्रयास करते रहे ।

चिन्तक के रूप में नेहरू का मानव में अटूट विश्वास था और उनकी प्रतिभा प्रकृति एवं चरित्र का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उनका वैज्ञानिक मानवतावाद था। उन्होने आत्मा, परमात्मा या रहस्यवाद जैसी चीजों को अधिक महत्व नहीं दिया। उनका ईश्वर तो मानवता थी और सामाजिक सेवा को ही उन्होंने धर्म माना। पं. जवाहरलाल नेहरू अपने दृष्टिकोण एवं चिन्तन में संकुचित सिद्धान्त को स्थान नहीं देते थे | क्या सही है, क्या गलत है, इसकी कसौटी उनके लिए मानवता का हित था। राज्य, शासन, नीति और धर्म के सम्बन्ध में वे घिसे-पिटे सिद्धान्त से प्रेरित न होकर मानव हित की चिंता से अनुप्राणित थे । जैसा किं प्रोफेसर एम.एन. दास कहते हैं, “उनका मानवतावाद और उदारतावाद व्यक्ति के प्रति आन्तरिक सम्मान की भावना से पोषित है” His humanism and liberality are Fostered by an inner respect for the individual self.

पं. जवाहरलाल नेहरू का समाजवाद साम्यवादी रूस या चीन के समाजवाद से भिन्न था । वे प्रत्येक व्यक्ति के हित के पक्षधर थे। वे राजा हित जैसी अस्पष्ट धारणाओं की वेदी पर व्यक्ति का बलिदान करने को तैयार नहीं थे और न ही वे राजनीतिक सिद्धान्तों की सूक्ष्म धारणाओं के अधीन ही व्यक्ति को रखना चाहते थे अपने मानवतावाद और जीवन की समस्याओं के मानवीय दृष्टिकोण के कारण ही नेहरू अपने को सर्वप्रिय बना सके । लोकतंत्र, समानता और व्यक्ति की प्रतिष्ठा के प्रति उनकी निष्ठा ने ही उन्हें अद्वितीय मानवतावादी दार्शनिक बना दिया।

यह कहना कि पं. जवाहरलाल नेहरू का कोई धर्म नहीं था कि वे अधार्मिक व्यक्ति थे, बिल्कुल भी सही नहीं है। यदि धर्म का अर्थ रीति-रिवाजों का निर्वाह करना या धार्मिक ग्रन्थों का पढ़ना ही है। तब तो वे धार्मिक बिल्कुल नहीं थ्जे। किन्तु वास्तविकता यह है कि धर्म का अर्थ यह नहीं। यदि धर्म का अर्थ विश्व के नैतिक शासन में विश्वास और मानवमात्र की सेवा है तो वे निश्चित रूप से धार्मिक व्यक्ति थे। केवल रीति-रिवाजों को निभाना, पूजा आदि करना, यह सब कुछ उनको पसन्द नहीं था पं. जवाहरलाल नेहरू के लिए धर्म का अर्थ है सुचरित्र, सच्चाई, प्यार और मन की स्वच्छता । वे धर्म की परिभाषा इस प्रकार करते हैं कि धर्म व्यक्ति का आन्तरिक विकास एवं अच्छाई की दिशा में उसकी चेतना के विकास से है। पं. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार वास्तविक रूप से धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं है। धर्म को विज्ञान का आवरण पहनना होगा और वैज्ञानिक भावना से अपनी समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण अपनाना होगा। हममें से अधिकतर लोगों के लिए तो धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाना पर्याप्त है। यह नेहरू ने ‘यूनिटी ऑफ इंडिया’ में लिखा था।

सभी महान विभूतियों के सदृश नेहरू सत्य के खोजी थे । किन्तु वे सत्य के प्रति विशुद्ध सैद्धान्तिक पहुँच में विश्वास नहीं करते थे, क्योंकि सत्य इतनी व्यापक चीज है। कि वह मनुष्य के सीमित मस्तिष्क की समय से परे हैं। गांधीजी की भाँति उन्होंने सत्य को ईश्वर का पर्याय नहीं समझा । उनकी सत्य की खोज विज्ञान, ज्ञान और अनुभव से अनुप्राणित थी। सत्य को शिव और सुन्दर के तुल्य समझा जा सकता था । वे सत्य को विकासशील मानते थे न कि स्थिर, इसको जीवन दायिनी संवेग समझते थे न कि कोई मृत विचार या पाखण्ड या आडम्बर जो मन और मानवता के विकास में बाधा बने।

जहाँ तक साध्य और साधन के मध्य सम्बन्ध का प्रश्न है पं. जवाहरलाल नेहरू जी के विचार गांधीजी के विचारों से मिलते थे । गांधीजी के लिए साध्य और साधन अपृथकनीय थे उनके अनुसार साध्य साधन में से उपजता है। जैसा साधन होगा वैसा ही साध्य होगा। साधन की तुलना बीज से सकी जा सकती है, साध्य की वृक्ष से। जो सम्बन्ध बीज और वृक्ष में है, वही साधन और साध्य में है। गांधीजी का यह विचार नेहरू द्वारा पूरी तरह समार्थिक था। राजनीति के भंवरजाल में भी अच्छे साध्य हेतु अच्छे साधनों का प्रयोग नेहरू ने कभी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया। उनका मैकियावली के इस कथन में कि साध्य साधन का औचित्य ठहराता है, विश्वास नहीं था । उन्होंने लिखा है, “यदि मैंने अपने सार्वजनिक जीवन के पिछले 40 वर्षों में कुछ अनुभव प्राप्त किया है या यदि मैंने उस महात्मा से, जिसने हमें बहुत सी चीजें सिखाई, कुछ सीखा है तो वह यह है कि अन्ततोगत्वा एक टेड़ी नीति लाभदायक नहीं होती, भले ही अर्थायी रूप से इससे कोई लाभ नजर आये।”

अच्छे साध्य के लिए अच्छे साधनों के सिद्धान्त में विश्वास नेहरूजी किसी दार्शनिक या धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं करते थे । अपितु रसमस्या के प्रति अपना वैज्ञानिक मस्तिष्क लगाकर इस सिद्धान्त की सार्थकता से संतुष्ट थे वे आश्वस्त थे कि यदि कोई व्यवित सही काम करता है तो परिणाम भी अच्छे होंगे और गलत कार्य का गलत परिणाम होना भी अप्रत्याशित नहीं। इसी कारण नेहरू जी नैतिक दृष्टिकोण को ही जीवन की समस्याओं से जूझने के लिए सही दृष्टिकोण मानते थे ।

पं. जवाहरलाल नेहरू लोकतंत्र के कट्टर समर्थक थे। उनके अनुसार मानवों के शासन के लिए सर्वोत्तम साधन लोकतंत्र ही है। उनका विश्वासा था कि इसी शासन पद्धति के द्वारा ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के सर्वोच्च विकास शिखर पर पहुॅच सकता है और राष्ट्र अपनी राष्ट्रीयता के सर्वोच्च विकास शिखर पर पहुँच सकता है। फिर भी नेहरू ने लोकतंत्र को परिभाषित नहीं किया, क्योंकि उन्होंने अनुभव किया कि किसी चीज को परिभाषित करना उसे सीमित कर देना है। उनके लिए लोकतंत्र स्थिर चीज न होकर एक गतिशील एवं विकासशील चीज थी, और ज्यों-ज्यों यह बदलता है त्यों-त्यों यह और अधिक व्यापक होता जाता है। नेहरू के लिए जनता सर्वोच्च थी। किसी भी शासन पद्धति को जो लोकतंत्र होने का दावा करती है, लोगों के कल्याण और सुख का ध्यान होना चाहिए। वे लोकतंत्र को जनता की स्वतन्त्रता जनता की समानता, जनता का भ्रातृत्व एवं जनता की सर्वोच्चता समझते थे।

पं. जवाहरलाल नेहरू का मानव प्रतिष्ठा में अटूट विश्वास उनके लोकतंत्रीय होने के लिए उत्तरदायी था। वह जनता को प्रत्येक कार्य में भागीदार मानते थे फांसीवादियों की तरह वे जनता को एक बालक के रूप में नहीं अपितृ पृथक व्यक्तियों के रूप में मानना अधिक पसन्द करते थे। एक बार जब उनसे पूछा गया कि आपकी कितनी समस्याएँ हैं, तो उनका उत्तर था 360 मिलियन समस्याऍँ, जिसका अभिप्राय यह था कि उस समय देश की आबादी 360 मिलियन थी और नेहरूजी को 360 मिलियन लोगों में से प्रत्येक की समस्याओं का अहसास था । उनका कहना था कि हमें व्यक्तियों के संदर्भ में सोचना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति के सुख और प्रत्येक व्यक्ति के दुःख के सन्दर्भ में सोचना चाहिए। जे. एस. मिल और लॉक की भाँति नेहरू जी अद्वितीय व्यक्तिवादी थे।

लोकतंत्र को शासन पद्धति के अतिरिक्त नेहरूजी एक जीवन पद्धति भी मानते थे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र चिंतन कर सरके और अपनी क्षमताओं का अधिकतम विकास कर सके। सच्चा लोकतंत्र व्यक्ति के शिष्टाचार और उसके द्वारा दूसरों के विचारों के प्रति सम्मान एवं सहिष्णुता से बनता है लोकतंत्र की सफलता के लिए नेहरू जी 5 अनिवार्यताओं पर जोर देते थे, जोकि इस प्रकार है-

  1. जागरूक जनमत की पृष्ठभूमि
  2. नागरिकों में उत्तरदायित्व की भावना
  3. समुदाय का आत्म-अनुशासन
  4. दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता, विशेषता जो अपने विचारों से विरोधी विचार हों. तथा
  5. सभाज की भौतिक समृद्धि।

उनकी दृष्टि में समाजवाद लोकतंत्र का ही एक पहलू है। सन 1936 में उन्होंने लिखा था कि “विश्व और भारत की समस्याओं के समाधान की कुंजी समाजवाद में है।और जब मैं इस शब्द का प्रयोग करता हॅूँ तो अस्ण्ट मानवतावादी रूप में नहीं अपितु वैज्ञानिक एवं आर्थिक अर्थ में वास्तव में समाजवाद एक आर्थिक सिद्धान्त से भी अधिक है। यह एक जीवन दर्शन है इसीलिए यह मुझे अपील करता है। “नेहरू का इस प्रकार, समाजवाद में विश्वास विकसित होता गया। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि तीव्र बेरोजगारी, शोषण एवं जनमानस की दासता का अन्त समाजवाद के माध्यम से किया जा सकता है. किन्तु नेहरू का समाजवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोधी नहीं है। अन्य समाजवादियों की भाँति नेहरू नहीं मानते कि समाजवाद और व्यक्तिवाद साथ-साथ नहीं चल सकते। नेहरूजी के अनुसार समाजवाद में अन्तःकरण, मस्तिष्क की स्वतंत्रता, पहल करने की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सम्पत्ति रखने आदि की स्वतंत्रता का वही स्थान है। जोकि व्यक्तिवादियों की योजना में है। अन्तर केवल इतना है कि कोरे व्यक्तिवादियों की भाँति धन के केन्द्रीकरण को वे कुछ ही हाथों में नहीं देखना चाहते थे जहाँ तक समाजवाद के स्वरूप का प्रश्न है नेहरूजी समाज के समाजवादी ढाँचे की स्थापना के पक्षधर थे, जिसमें सबके लिए अवसर की समानता हो और एक अच्छा जीवन जीने के लिए सम्भावना। उनका कहना था कि हमें समानता पर जोर देना है। असमानताओं के निवारण का कार्य करना है, किन्तु यह भी स्मरण रखना है कि समाजवाद निर्धनता का विस्तार नहीं है। अनिवार्य बात यह है कि धन और उत्पादन यथेष्ट मात्रा में होने चाहिए।

पं. जवाहरलाल नेहरू समाजवाद लाने के लिए शान्तिमय उपायों के पक्षधर थे। बड़े पैमाने पर पूँजीपतियों का वध, बिना क्षतिपूर्ति किए व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिग्रहण। नेहरू के समाजवाद में घृणास्यद बातें थीं समाजवाद लाने के लिए शान्ति के साधनों का प्रयोग करने का समर्थन एवं समाज में न्याय पर आधारित जीवन यापन की व्यवस्थाओं की वकालत ने नेहरू के समाजवादी आदर्श को विश्वसनीयता प्रदान की।

निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि नेहरू जी एक सर्वप्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। राजनीतिज्ञ अर्थशास्री, चिंतक, साहित्यकार आदि सभी का समावेश उनके धनी व्यक्तित्व में था। उनकी बहुमुखी प्रतिभा उनकी स्वाभाविक उदारता में सोने में सुगन्ध का कार्य करती थी निश्चरय ही वे भारत के देश रत्न थे ।

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