सैंघव सभ्यता की देन

सैंघव सभ्यता की देन (The gift of the Sanghv civilization)

सैंघव सभ्यता की देन (The gift of the Sanghv civilization)

परवर्ती भारतीय सभ्यता के अधिकांश तत्वों का मूल हमें भारत की इस प्राचीनतम सभ्यता में दिखाई देता है। सैंधव सभ्यता की खोज ने हमारे इतिहास को एक सातत्य प्रदान किया है तथा इसकी प्राचीनता को ई0 पू0 3000-2500 तक पहुँचा दिया है। प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि आयों के आगमन के समय तक (लगभग ई0 पु0 1500) भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक हजार वर्षों का व्यवधान है, किन्तु सैंधव सभ्यता ने इसे हटा दिया है। पुराणों में भारत का जो पारम्परिक इतिहास वर्णित है वह प्रलय के बाद से प्रारम्भ होकर महाभारत युद्ध (लगभग 1400 ई0 पू0) तक माना जाता है। चैंकि सैंधव सभ्यता प्रलयोकत्तर हैं, अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि सैंधव सभ्यता से लेकर महाभारत युद्ध तक की ऐतिहासिक परम्पराओं में एक सातत्य (Continuity) हैं।

भारतीय (हिन्दू) सभ्यता के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, कलात्मक पक्षों का आदि रूप हमें सेंधव सभ्यता में प्राप्त हो जाता है। सामाजिक जीवन के क्षेत्र में हम चातुर्वर्ण व्यवस्था के बीज सैंधव सभ्यता में पाते हैं। मोहेनजोदड़ों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों के आधार पर विद्वानों ने सैधव समाज को चार वर्गों में बांटा है-विद्वान्, योद्धा, व्यापारी तथा शिल्पकार और श्रमिक। इन्हें हम ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्र का पूर्वज कह सकते हैं।

आर्थिक जीवन के क्षेत्र में हम पाते हैं कि कृषि, पशुपालन, उद्योग-धन्धों, व्यापार- वाणिज्य आदि का संगठित रूप से प्रारम्भ सैंधववासियों ने ही किया जिनका विकास बाद की सभ्यताओं मे हुआ। यहीं के निवासियों ने बाह्य जगत् से सम्पर्क स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया जो बाद की शदियों तक विकसित होता रहा। भारतीय आहत मुद्राओं पर अंकित कुछ प्रतीक सैंधव लिपि के चिह्नों जैसे हैं, जबकि साँचे में ढालकर तैयार की गयी मुद्रायें अपने आकार-प्रकार के लिये सैंधव मुद्राओं की ऋणी हैं। आहत सिक्कों की मानक माप सैंधव बाटों की माप से मिलती हैं। हड़प्या तथा मोहेनजोदड़ों के बर्तनों, मिट्टी की वस्तुओं आदि पर अंकित कुछ चिह्न, आकृतियाँ, प्रतीक आदि पंजाब से ईसा पूर्व की प्रारम्भिक शदियों की वस्तुओं पर अंकित मिलते हैं।

सेंघव सभ्यता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव हिन्दू धर्म तथा धार्मिक विश्वासों पर पदिखाई देता है। मार्शल ने उचित ही सुझाया है कि हिन्दू धर्म के प्रमुख तत्वों का आदि रूप हमें सैंधव धर्म में प्राप्त हो जाता है। इन्हें हम इस प्रकार रख सकते हैं-

(1) सैंधव धर्म में मातादेवी का प्रमुख स्थान धा। इसी का विकसित रूप बाद के शाक्त धर्म के रूप में दिखाई देता है। सिन्धु घाटी के लोगों ने अपने पीछे मातृ पूजन की जो परम्परा छोड़ी उसे भारतीय लोगों ने शक्ति देवी, ग्राम देवता आदि के रूप से स्वीकार किया तथा वह आज तक सवोपरि देवी के रूप में विद्यमान है।

(2) सैंधव धर्म में जिस पुरुष देवता के अस्तित्व मिलते हैं उसे ऐतिहासिक काल के शिव का आदि रूप स्वीकार किया गया है। यहाँ से लिंग पूजा के प्रमाण मिलते हैं। कालान्तर में हिन्दू धर्म में इसे ही शिव का प्रतीक मान लिया गया। सैंधव मुद्राओं पर योगासन में बैठे हुए देवता का चित्र मिलता है। इसका विकास कालान्तर में दक्षिणामूर्ति रूपी शिव तथा योगी रूपी बुद्ध की मूर्तियों के रूप में दिखाई पड़ता है। सारनाथ में प्रवचन देते हुए महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ इसी प्रकार की हैं। सैंधव प्रदेशों में दाढ़ युक्त नग्न पुरुषों की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं। ये खड़ी मुद्रा में हैं, पैरों के बीच थोड़ा अन्तर हैं तथा भुजायें शरीर के दोनों ओर समानान्तर हैं। इस मूर्ति का विकास बाद में जैनियों के कार्योत्सर्ग मुद्रा की मूर्तियों में देखने को मिलता है जिनमें ध्यानावस्थित तीर्थङूकरों को इसी प्रकार दिखाया गया है। मथुरा संग्रहालय में तीर्थड्कर ऋषभदेव की जो मूर्ति स्थापित है वह इसी मुद्रा में हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि शैव धर्म की भाँति बौद्ध तथा जैन धर्मों का आदि रूप भी हमें सैंधव सभ्यता में ही मिल जाता है।

(3) सेंधव सभ्यता में वृक्ष पूजा के प्रमाण मिलते हैं। विभिन्न मुद्राओं पर अंकित पीपल के वृक्ष, टहनी, पत्तियों आदि से स्पष्ट है कि पीपल को पवित्र मान कर उसकी पूजा की जाती थी। कालान्तर में हम पाते हैं कि वौद्ध तथा हिन्दू दोनों ही धर्मों में पीपल को पवित्र मानकर उसकी पूजा की जाती थी। इसी वृक्ष के नीचे बुद्ध को सम्बोधि प्राप्त हुई थी। भरहुत, साँची आदि के स्तुपों पर इसका अंकन है। जहाँ तक हिन्दू धर्म का प्रश्न है, पीपल की महत्वपूर्ण धार्मिक मान्यता थी। गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) बताया है। (अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्…)। पुराणों में वर्णित है कि जो लोग अश्वत्थ पर जल चढाते है उन्हें स्वर्ग प्राप्त होता है। आज भी हिन्दू धर्म में पीपल में देववास माना जाता है तथा उसे काटना या जलाना महापाप कहा जाता है। यह विचार हिन्द्र धर्म ने सैंधव सभ्यता से ही ग्रहण किया।

(4) सैंधव सभ्यता में विभिन्न पशुओं की धार्मिक महत्ता थी। कालान्तर के हिन्दू धर्म में भी हमें पशु पूजा के प्रमाण मिलते हैं। विभिन्न मुद्दाओं से ज्ञात होता है कि सिन्धुवासी वृषभ तथा भैंसा को पवित्र मानते तथा उनकी पूजा करते थे। कालान्तर के हिन्दू धर्म में वृषभ का सम्बन्ध शिव से जोड़कर उसे पूज्य माना गया। सैंधव शिव के साथ सिंह का भी अंकन है जिसे हिन्दू धर्म में दुर्गा का वाहन माना गया है। सैंधव मुद्राओं से पता चलता है कि नाग पूजा भी होती थी। हिन्दू धर्म में आज भी नाग पूजा प्रचलित है।

(5) सैंधव सभ्यता के लोग जल को पवित्र मानते थे तथा धार्मिक समारोहों के अवसर पर सामूहिक स्नान आदि का महत्व धा, जैसा कि बहत्स्नानागार से पता लगता है। यह भावना भी हमें बाद के हिन्दू धर्म में देखने को मिलती है। पूजा में धूप-दीप का भी प्रयोग होता था माता देवी की कुछ मूर्तियों के ऊपर दीप तथा धुएं के चिह्न हैं कछ मुद्राओं पर अग्नि जलती हुई चित्रित है। ये सभी विधियाँ हिन्दू उपासना में भी मिलती हैं।

(6) सैंधव निवासी स्वस्तिक, स्तम्भ आदि प्रतीकों को भी पवित्र मानकर उनकी पूजा करते थे। मुद्राओं पर इनके चित्र मिलते हैं। हिन्दू धर्म में आज भी ‘स्वस्तिक’ को पवित्र माँगलिक चिह्न माना जाता है। इसे चतुर्भुज ब्रह्मा का रूप स्वीकार किया जाता है। स्तम्भ की बौद्ध धर्म में प्रतिष्ठा थी।

(7) सैंधव निवासी ताबीज धारण करते धे। इनके द्वारा वे भौतिक व्याधियाँ अथवा प्रेतात्माओं से छुटकारा पाने का प्रयास करते थे। इस प्रकार का अन्धविश्वास आज भी पहमें हिन्दू धर्म में देखने को मिलता है।

(8) सैंधव सभ्यता में प्राप्त विभिन्न देवी- देवताओं, पशु-पक्षियों आदि की मूर्तियों से स्पष्ट है कि वहाँ के लोग मूर्ति पूजा में विश्वास करते थे तथा अपने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाते थे। मार्शल का विचार है कि वे लकड़ी के मन्दिर बनाते थे। कालान्तर के पौराणिक हिन्दू धर्म में मूर्ति तथा मन्दिर उपासना के सर्वमान्य अधिष्ठान बन गये। अंतः इस निष्कर्ष से बचना कठिन है कि कालान्तर का हिन्दु धर्म सेंधव धर्म का ही विकसित रूप है।

धर्म के ही समान भारतीय कला के विभिन्न तत्वों का मूल रूप भी हमें सेंधव कला में दिखाई देता है। भारतीयों को दुर्ग निर्माण तथा प्राचीरों के निर्माण की प्रेरणा यहीं के कलाकारों ने दी थी। सुनियोजित ढंग से नगर बसाने का ज्ञान भी हमें हड़प्पा संस्कृति से ही प्राप्त होता है। मौर्य कलाकारों ने स्तम्भयुक्त भवन बनाने की प्रेरणा सेंधव सभ्यता से ही ग्रहण किया धा। मोहेनजोदड़ों की खुदाई में स्तम्भयुक्त भवन के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ऋग्वेद से भी पता चलता है कि अनार्यो के पुर शतभुजी अर्थात् सौ खम्भों वाले थे जिनका इन्द्र ने भेदन किया था। यहाँ सैंधव दुर्गों की ओर ही संकेत है। लगता है इन्हीं के अनुकरण पर मौर्य कलाकारों ने चन्द्रगुप्त के खम्भों वाले राजप्रासाद का निर्माण किया था। मूर्तिकला का प्रारम्भ सर्वप्रथम सिन्धु घाटी में ही किया गया। वहाँ के कलाकारों ने पाषाण, ताम्र, काँसा आदि की जिन कलात्मक मूर्तियों का सृजन किया उनका व्यापक प्रभाव बाद की हिन्दू कला पर पड़ा। कुछ मुद्राओं पर वृषभ का अत्यंत सजीव तथा प्रभावपूर्ण चित्र मिलता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि अशोक के समय के रमपुरवा वृषभ की आकृति इसी के अनुकरण पर बनाई गयी थी। सिन्धु सभ्यता में नर्तकी की जो मूर्ति मिलती है उसी के अनुकरण पर मथुरा की पाषाण वैष्टिनी पर यक्षी मूर्तियों का निर्माण हुआ प्रतीत होता है। इस प्रकार ऐतिहासिक काल की प्रारंभिक मूर्तिकला सैंधव मूर्तिकला से प्रभावित है।

संधव सभ्यता की एक प्रमुख देन नगर जीवन के क्षेत्र में हैं। पूर्ण विकसित नगरीय जीवन का सूत्रपात इसी सभ्यता से हुआ। सुरक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता इत्यादि के क्षेत्र में सैंधव लोगों ने बाद की पीढ़ियों का दिशा निर्देशन किया है। नगर शासन के श्क्षेत्र में भी उनका योगदान है क्योंकि उनके नगरों में स्वास्थ्य एवं सफाई आदि के लिये नगर महापालिकाओं का अस्तित्व अवश्यमेव रहा होगा सैंधव निवासियों का शासन अत्यंत सुदृढ़ एवं एकात्मक था। कहा जा सकता है कि एकछत्र एवं सुदृढ़ शासन की प्रेरणा भारतीयों को उन्ही से मिली।

इर प्रकार यह स्पष्ट है कि से धात सभ्यता में केवल नगरों का ही अन्त हुआ सम्पूर्ण सभ्यता का नही। इसके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा ग्रामीण जीवन से संबंधित सभी तथ्य केवल अवशिष्ट रहे अपितु उन्हें आज भी भारतीय जन जीवन में न्यूनाधिक परिवर्तनों के साथ देखा जा सकता है । अतः यह कहना समीचीन नहीं है  कि आयों ने सैंधव सभ्यता का विनाश किया।

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