आदि-मानव समाज : आखेट और जनसमूह

आदि-मानव समाज : आखेट और जनसमूह (Early Human Societies : Hunting and Gathering)- प्राक् ऐतिहासिक काल, पूर्व-पाषाण युग

आदि-मानव समाज : आखेट और जनसमूह (Early Human Societies : Hunting and Gathering)– प्राक् ऐतिहासिक काल, पूर्व-पाषाण युग

प्रस्तावना (Introduction)

पृथ्वी पर मानव जीवन का प्रारम्भ-

पहले लोगों की धारणा थी कि सृष्टि की रचना एवं विभिन्न प्राणियों का सृजन ईश्वर ने किया। कालान्तर में मनुष्य ने सभ्यता की नींव डाली। दूसरे शब्दों में, लोग मानव की उत्पत्ति एवं सभ्यता के विकास के दैविक सिद्धान्त में विश्वास करते थे, किन्तु आज के इस वैज्ञानिक युग में ऐसी धारणाओं का शायद ही कोई महत्त्व रह गया है वैज्ञानिक अन्वेषणों के आधार पर अब यह प्रमाणित किया जा चुका है कि पृथ्वी की उत्पत्ति आज से लगभग दो सौ करोड़ वर्ष पहले हुई और लाखों वर्ष के बाद पृथ्वी पर मानव का अवतरण हुआ। पृथ्वी पर मानव का प्रादुर्भाव क्रमश: विकास के फलस्वरूप हुआ यही मनुष्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के जनक डारविन हैं।

आज तो हम सभ्यता की बहुत ऊँची मंजिल पर पहुँच गये हैं किन्तु इस मंजिल की सीढ़ियों का निर्माण आदि मानव ने सहस्राब्दियों पूर्व सुदूर अतीत में किया था । मानव- सभ्यता एक सरिता की भाँति विकास के मार्ग पर अग्रसर होती रही है। बहुत दिनों तक हमें मानव सभ्यता के इस विकास-क्रम की कोई जानकारी नहीं थी। किन्तु, विगत सौ वर्षों के प्रयास से इस सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ जानकारी हो चुकी है।

प्राक् ऐतिहासिक काल (Pro-Historical Phase)

सभ्यता के क्रमबद्ध विकास के पूर्व मानव इतिहास को प्राक ऐतिहासिक काल कहा जाता है। इस काल में मनुष्य ने जिस सभ्यता का विकास किया, उसे हम आदि काल की सभ्यता अथवा आदिम सभ्यता के नाम से जानते हैं। यद्यपि इस सभ्यता का काल निश्चित करना कठिन है, किन्तु विद्वानों ने अपने अथक प्रयास से प्राक ऐतिहासिक काल के मानव जीवन की एक रूपरेखा प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। इस काल के लिए कोई लिखित ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं है। अतः, इस संदर्भ में विद्वानों ने जो कुछ भी कहा है उन्हें पूर्णतः सत्य नहीं माना जा सकता है। फिर भी, वैज्ञानिक अन्वेषण और विश्लेषण के आधार पर मानव की आदिम सभ्यता के मनोरंजक इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है।

मनुष्य भोजन-संग्राहक के रूप में- सभ्यता के प्रथम सोपान पर मनुष्य और पशु में कोई विशेष अन्तर नहीं था। दोनों लगभग एक ही तरह का जीवन व्यतीत करते थे किन्तु इनके बीच एक बहुत बड़ा अन्तर था ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी, जिसका हम पशुओं में अभाव- सा पाते हैं। इसी बुद्धि का सहारा लेकर मनुष्य क्रमिक रूप से आगे की ओर बढ़ता चला गया।

आदि मानव को मौलिक रूप से भोजन संग्राहक के रूप में लिया जा सकता है। किसी भी युग में मनुष्य की पहली मौलिक आवश्यकता है-भोजन। बिना खाये-पिये कोई भी प्राणी जिन्दा नहीं रह सकता है। प्रारम्भ में कृषि का तो आविष्कार हुआ नहीं था। अत: मनुष्य को जीबन के लिए पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर करना पड़ता था वह जंगली कन्द-मुल, फल-फूल तथा जानवरों का मांस खाकर अपना पेट भरता था। अत: इनकी खोज में वह एक जगह से दूसरी जगह भटकता फिरता था। सघन जंगलों में ही वह जीवन-यापन करता था। वन्य वृक्षों के फल ही उसके भोजन थे। वृक्षों की पत्तियाँ ही, शीत-ताप एवं वर्षा से वस्त्र के रूप में उसे त्राण दिलाती थीं। सघन झाड़ियाँ और गुफागुह्वर ही उसके निवास स्थान थे। सरिता एवं झरने के जल से ही वह अपनी प्यास बुझाता था आदि-मानव का यही रूप था और उसके जीवन-यापन के यही साधन थे उनका सारा जीवन भोजन की खोज में ही समाप्त हो जाता था।

प्रारम्भ में मनुष्य को प्राकृतिक प्रकोपों और जंगली जानवरों के साथ हमेशा संघर्ष करना पड़ता था। इसके लिए उसने अनेक हथियारों और औजारों का आविष्कार किया। प्रारम्भ में ये औजार पत्थरों के बने होते थे, किन्तु बाद में इसके लिए विभिन्न धातुओं का प्रयोग किया जाने लगा। इन अस्त्र -शस्त्रों के आधार पर आदिमानव के प्राकृ ऐतिहासिक युग को विद्वानों ने तीन चरणों में विभक्त किया है – पूर्व पाषाण युग, नव-पाषण युग और धातु युग।

नोटस – आदि-मानव को मौलिक रूप से भोजन संग्राहक के रूप में लिया जा सकता है।

पूर्व-पाषाण युग (Pal eolithic Age)

सामान्यतः पचास हजार ई. पू. से दस हजार ई. पु. तक के काल को पूर्व-पाषाण युग माना जाता है। खुदाई में प्राप्त सामग्री से पता चलता है कि इस काल में नीयंडरथल, पिल्ट डाउन, त्रिनिल, रोडेशियन, काकेशस, पिथकैंथ्रोपस, हिंडलवर्ग आदि मानव रहते थे। पूर्व-पाषाण युग के अवशेष जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड आदि यूरोपीय देशों के अतिरिक्त भारत, जावा आदि में भी मिले हैं। अनुमानतः मानव का अधिकांश जीवन इसी युग में बीता है।

आजीविका एवं आवश्यकताएँ- पूर्व-पाषाण युग का मनुष्य पूर्णत: बर्बर एवं जंगली था उसका जीवन पशुओं के समान था। उस समय जीवन अत्यन्त ही संघर्षमय रहा होगा। हिंसक पशुओं तथा प्राकृतिक प्रकोपों के कारण उसका जीवन सदा खतरे में रहता था।

सदा से मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं में भोजन, बस्त्र एवं आबास का महत्त्व सर्वाधिक रहा है आदि मानव की भी यहीं तीन आवश्यकताएँ थीं।

भोजन- प्राणरक्षा के लिए भोजन अत्यन्त आवश्यक होता है। उन दिनों मनुष्य की आजीविका का कोई स्थिर आधार नहीं था। कृषि अथवा पशुपालन की उन्हें जानकारी नहीं थी अत:, लोग कन्द मूल खाकर अथवा जंगली जानवरों के मांस से अपना पेट भरते थे। मांस को लोग कच्चा अथवा पकाकर खाते थे।

वस्त्र- भोजन की पर्ति के बाद शरीर-रक्षा की आवश्यकता पड़ती थी। प्रारम्भ में मनुष्य नंगा हो रहता होगा। झाडियों, खाड़ियों और गुफाओं में लुक-छिपकर वह प्रतिकूल मौसम से अपनी रक्षा करता था। अपनी शरीर-रक्षा के उद्देश्य तथा लज्जा की भावना से उत्प्रेरित होकर आदि-मानव ने बृक्षों की छालों, पेड़ों की पत्तियों तथा जानवरों की खालों से अपने शरीर को ढंकना प्रारम्भ किया ।

आवास- आदि-मानव को रहने की काफी असुविधा थी। आज की तरह भवनों अथवा झोपड़ियों के निर्माण की कला का उन्हें ज्ञान नहीं था। अत:, वह कन्दराओं, झाड़ियों और खाइयों में लुक-छिपकर प्रकृति के प्रकोपों और प्रतिकूल मौसमों से किसी तरह अपने शरीर की रक्षा करता था ।

अस्त्र-शस्त्र तथा औजार- पूर्व-पाषाण युग के मानव ने आवश्यकतानुसार अनेक प्रकार के औजारों तथा हथियारों का आविष्कार किया। आदिमानव के प्रारम्भिक हथियार उसके हाथ-पाँव ही थे। बाद में उसने लकड़ी और पत्थरों के हथियार बनाये। लकड़ी के उपकरण टिकाऊ नहीं होते थे अत: पत्थरों का प्रयोग बढ़ा। पाषाण खण्डों को घिस-धिस कर नुकीले और सीधे चुभने वाले हथियार बनाये जाने लगे इस प्रकार पत्थरों से बर्छे, भाले, कटार, कुल्हाड़ी, मूसल, हथौड़ा आदि औजार बनाये जाने लगे और बाद में हड्डियाँ, सींग तथा हाथी दाँत के हथियार बनाये जाने लगे। आगे चलकर बढ़ईंगीरी की कला विकसित हुई। रस्सी तथा टोकरियाँ बनाने के प्रमाण भी मिलते हैं। इस युग में मनुष्य तीर-धनुष का प्रयोग भी करने लगा था ।

इसी काल में मनुष्य ने अग्नि का आविष्कार और प्रयोग किया। यह इस युग का सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार था। अग्नि के प्रयोग से मनुष्य की अनेक समस्याओं का निवारण हुआ। घनी झाड़ियाँ जलाई जाने लगीं। अग्नि से भयानक जंगली जानवर भाग खड़े हुए। अग्नि का ज्ञान होने पर मनुष्य अपना शिकार भूनकर खाने लगा। साथ ही इसके द्वारा कड़ी ठंड से वह अपनी रक्षा भी करने लगा।

क्या आप जानते हैं- पूर्व-पाषाण युग में मानब ने अग्नि का आविष्कार तथा प्रयोग किया।

सामाजिक संगठन- प्रारम्भ में मनुष्य अकेला रहता था समाज संगठित नहीं था। सामाजिक बंधन ढोले-ढाले थे । विवाह संस्कार का प्रारम्भ नहीं हुआ था। पति-पत्नी के सम्बन्ध की चेतना भी अभी नहीं आयी थी। समाज में स्त्री का महत्त्व बहुत अधिक था। बच्चों पर माँ का ही अधिकार रहता था। मानव विज्ञान-शास्त्रियों ने इस आदिम समाज को नारी-प्रधान अथवा मातृ-सत्तात्मक समाज माना हैं ।

कालान्तर में मानव ने समूह एवं संगठन का महत्त्व समझा। गिरोह अथवा झुण्डों में रहने से आदि मानव का अस्तित्व अधिक सुरक्षित दिखलाई पड़ने लगा। धीरे-धीरे परिवार विवाह- संस्कार आदि संस्थाओं का जन्म हुआ।

आर्थिक संगठन- इस युग में भी मानव समाज में कोई आर्थिक संगठन नहीं था। व्यक्तिगत सम्पत्ति का विकास अभी नहीं हुआ था। जंगलों और जानवरों पर किसी व्यक्ति अथवा परिवार-विशेष का अधिकार नहीं था। इसलिए इसे आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पूर्व-पाषाण युग के मनुष्य असभ्य एवं बर्बर थे कृषि, पशुपालन अथवा एक स्थान पर रहना वे नहीं जानते थे। शिक्षा, साहित्य, कला-कौशल. धर्म आदि से उन्हें दूर का भी लगाव नहीं था। फिर भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मनुष्य के रूप में सर्वप्रथम प्रकृति के विरुद्ध इन्हीं लोगों ने संघर्ष प्रारम्भ किया, जो आज भी चल रहा है।

सारांश (Summary)

  1. आज तो हम सभ्यता की बहुत ऊँची मॉजिल पर पहुँच गये हैं, किन्तु इस मंजिल की सीढ़ियों का निर्माण आदि-मानव ने सहस्राब्दियों पूर्व सुदूर अतीत में किया था ।
  2. सभ्यता के प्रथम सोपान पर मनुष्य और पशु में कोई विशेष अन्तर नहीं था दोनों लगभग एक ही तरह का जीवन व्यतीत करते थे।
  3. प्रारम्भ में मनुष्य को प्राकृतिक प्रकोपों और जंगली जानवरों के साथ हमेशा संघर्ष करना पड़ता था। इसके लिए उसने अनेक हथियारों और औजारों का आविष्कार किया।
  4. प्रारम्भ में मनुष्य नंगा ही रहता होगा। झाड़ियों, खाड़ियों और गुफाओं में लुक-छिपकर वह प्रतिकूल मौसम से अपनी रक्षा करता था।
  5. पूर्व-पाषाण युग के मानव ने आवश्यकतानुसार अनेक प्रकार के औजारों तथा हथियारों का आविष्कार किया।
  6. यह कहा जा सकता है कि पूर्व-पाषाण युग के मनुष्य असभ्य एवं बर्बर थे। कृषि, पशुपालन अथवा एक स्थान पर रहना वे नहीं जानते थे।

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